रूपाम्बरा | Rupambara

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Rupambara by सच्चिदानन्द वात्स्यायन - Sacchidanand Vatsyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका प्रकृति-कांव्य : काव्य-प्रकृति प्रकृतिकी चर्चा करते समय सबसे पहले परिभाषाका प्रदन उठ खड़ा होता है। प्रकृति हम कहते किसे हैं ? वैज्ञानिक इस प्रदनका उत्तर एक प्रकारसे देते हैं, दार्शनिक दूसरे प्रकारसे, धर्म-तत्त्वके चिन्तक एक तीसरे ही प्रकारसे । और हम चाहें तो इतना भर जोड़ दे सकते हू कि साधारण व्यविंतका उत्तर इन सभीसे भिन्न प्रकारका होता है । भर जब हम , एक प्रकारका उत्तर' कहते है, तब उसका अभिप्राय एक उत्तर नहीं है, क्योंकि एक ही प्रकारके अनेक उत्तर हो सकते हैं । इसीलिए वैज्ञानिक उत्तर भी अनेक होते हैं; दार्शनिक उत्तर तो अनेक होंगे ही, और धर्मपर आधारित उत्तरोंकी संख्या धर्मोंकी संख्यासे कम क्यों होने लंगी ? प्रवनको हम केवल साहिंत्यके प्रसंगमे देखें तो कदाचित इन अलग- भलग प्रकारके उत्तरोंको एक सन्दर्भ दिया जा सकता है। साहित्यकारकी दुष्टि ही इन विभिन्न दृष्टियोंके परस्पर विरोधोंसे ऊपर उठ सकती ह--उन सबको स्वीकार करती हुई भी सामब्जस्य पा सकती हैँ । किन्तु साहित्यिक दृष्टिकी अपनी समस्याएँ हैं; क्योंकि एक तो साहित्य दर्शन, विज्ञान और धर्मके विद्वासोंसे परे नहीं होता, दूसरे सांस्कृतिक परिस्थितियोंके विकासके साथ-साथ साहित्यिक सवेदनाके रूप भी बदलते रहते है । साधारण बोल-चालमें 'प्रकृति' 'मानव' का प्रतिपक्ष है, अर्थात्‌ मानवेतर ही प्रकृति है--वहू॒ सम्पूर्ण परिवेश जिसमें मानव रहता है, जीता है, भोगता है और संस्कार ग्रहण करता है । और भी स्थल दृष्टिसे देखनेपर प्रकृति मानवेतरका वह अंश हो जाती है जो कि इन्द्रियगोचर हू--जिसे हम देख, सुन और छू सकते हैं, जिसकी गन्घ पा सकते हैं * और ,जिसका आस्वादन कर सकते हैं। साहित्यकी दृष्टि कहीं भी इस स्थूल परिभाषाका खण्डन नहीं करती : किन्तु साथ ही कभी अपनेको इसी तक सीमित भी नहीं रखती । अथवा यों कहें कि अपनी स्वस्थ अवस्थामे साहित्यका प्रकृति- भूमिका 0




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