जीवस्थानचर्चा | Jivanesthan Charcha
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ४ ह
सचमसाम्परायगुशस्थानवर्ती, कहा जाता हैं इस गुणस्थानप
सूच्मसाम्परायचारित्र होता हैं जिसके द्वारा झम्तमें दुन्मलोभका
भी उपशस या क्षप कर देता है ।
_११ _उपशान्तमाद-समस्ते मोहनोयक्मका उपशम हो
चुकते दी उपशान्तगुणुस्थानवर्ती जीव हो जाता हैं, इस
गुणस्थानमें यथाख्यातचारित्र हो जाता है, किंतु उपशमका काल
समाप्त होते ही दशवें गुणरथानमें गिरना पड़ता है या मरना .
हो तो चौथे गुणस्थानमें एकदम आना पड़ता हैं ।
_र२-- की एकशय--( नीणमोह ) च्षपकश्रेणिसे चढ़नेवाला
मुनि ही समरत मोहनीयके क्षय दोते ही क्ीशमोहशुणस्थानवर्ती
हो जाताहै, इस गुणस्थानमें यथारूपातचारित्र हो जाता है तथा
इसके अन्त समयमें ज्ञानावरण, दशनावग्ण और अतराय
फ्मका भी चाय हो जाता है |
१३ सथोगकेवली -चारों घातिय। कर्मके नष्ट होते ही यह
श्रात्मा सकलपरमात्मा हो जाता है, उन केवली भगवानके जबतक
योग रहता है तबतक उन्हें सपोगकेवली कहते हैं, इनके विहार
भी होता है, दिव्यथ्वनि भी खिरती हैं, तीथक्र सयोगकेवली
के समवशरणकी रचना होती है, सामार्य सयोगकेबलीके गंघ-
कुटीकी रचना होती है, इन सबका नाम अह तपरमेष्ठी भी है,
अंतिम अंत हूते में इनके वाइरयोग नष्ट होकर चमयोग रद
जाता है और अंतमें यह स्च्मयोग भी नष्ट हो जाता है ।
१४ छयोगकेवली--योगके नष्ट होते ही ये परमात्मा अयोग-
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