विधवाविवाह और जैन धर्म | Jaindharm Our Vidhawavivah Volume - Ii
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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लाया हुआ विधान पया फल भोगने के लिप कम है ? हां तो
सातय नरक के नाग्की जीवन सर मार काट करने है छोर
उनका पाप यहाँ तक चद ज्ञाना हैं कि नियम से उन्हें तिर्यश्व
गति में ही जाना पड़ना है शरीर फिर नियम से उन्दे नरक में हो
लौटना पउना ऐ । ऐसे पापियों में थी सम्य्तत कुछ कम
तेतीस सागर श्यर्धात पर्यात्त होने के वाद से सरग के कुद
समय पहिले तक सदा रह सकता है । घट सिम्यक्तच विधघया-
विवाह करने चालें के नहीं रह सकता बलिहारी है इस
समझदारी को !
शधेप ( है )--सारकियोंपि सम व्यसन की सामग्री नहीं
जिससे दि इनके सम्यक्तत से हो श्योर होकर भी छूट जावे ।
अतः यह सानये नरक को ट््रांत घिघघाधिवाइ के थिपय में
कुल थी मुल्य नहीं रखना !
समाधान--घालेपक के कहनेसे यद तात्पयं निकलता
है कि श्रगर नरक में सम व्यसन की सामग्री दोती तो समय
कत्य न होता श्रीर छूट ज्ञाता (नए जाता) । चहां सस व्यसन
की साम्रयरी नहीं है इसलिए समय होता है शोर होकर
के नहीं छुटता हैं (नए नहीं दाता है ) | नरद मे सम्पफ्त्व के
नष्ट न होने वी यान जय हमने कही थी, तय श्राप घिगडे थे ।
यहाँ चह्दी चात श्रापने स्वीकार करली है | फैंसी श्रद्धत सन-
कना है ! सातवें नरक के दृ््टांत से यह यान श्रच्छी तरह सिद्ध
हो जाती है कि जब परम झष्ण लेग्या घाला क्रूर कर्मा, घोर
पापों नांग्की सम्यफ्त्वी रद सकता है तो घिधवा-चिरवाह
चालान जो दि शगुग्रती भी हो सकता हैं-सम्यकवी यों
नहीं रह सकता ?
तासेप ( ड )पॉचों पापों में एक है सकटपी दिखा,
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