आवश्यक सूत्र | Avashyaksutra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Avashyaksutra by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अभी श्रावश्यक सूत्र है” । दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जो प्रशस्त गुणों से श्रात्मा को सम्पन्न करता है, वह श्रावासक / ग्रावश्यक जैन साधना का प्राण है । वह जीवनशुद्धि श्रौर दोषपरिमार्जन का जीवन्त भाष्य है । साघक चाहे साक्षर हो चाहे निरक्षर हो, चाहे सामान्य जिजासु हो या प्रतापपूर्ण प्रत्तिभा का धनी कोई मुर्घन्य मनीपी; सभी साधकों के लिये श्रावश्यक का ज्ञान श्रावश्यक ही नहीं, श्रनिवार्य है । श्रावश्यकसूत्र के परिज्ञान से साघक श्रपनो श्रात्मा को निरखता है, परखता है। जेसे वदिक परम्परा में सन्ध्याकर्म है, वौद्ध परम्परा में उपासना है, पारसियों में खोर देह श्रवेस्ता है, यहूदी और ईसाईयों में प्रार्थना है, इस्लाम धर्म में नमाज है, वैसे हो जनधर्म में दोपों की विशुद्धि के लिये श्रौर गुणों की श्रमिवृद्धि के लिये श्रावश्यक है । श्रावश्यक जन साघना का मुख्य अंग है । वह श्राध्यात्मिक समता, नम्रता, प्रभृत्ति सद्युणों का श्राधार है । अन्तर थ्टिसिम्पन्न साघक का लक्ष्य वाह्य पदार्थ नहीं, श्रात्मशोधन है । जिस साधना श्रौर श्राराघना से श्रात्मा शाश्वत सुख का अनुभव करे, कर्म-मल को नप्ट कर सम्प्रगुदर्शन सम्यगूज्ञान श्रौर सम्यक्चारित्र से श्रध्यात्म के ग्रालोक को प्राप्त करें, वह झावण्यक है । अपनी भूलों को निहार कर उन भ्रूलों के परिष्कार के लिये कुछ न कुछ क्रिया करना श्रावश्यक है । शरावश्यक का विधान श्रमण हो या श्रमणी हो, श्रावक हो यां श्राविका हो--असभी के लिये है ।* * अनुयोगद्ारसूत्र में श्रावश्यक के आ्राठ पर्यायवाची नाम दिये हैं--मावश्यक, श्रवश्यकरणीय, घ्रुवनिग्रह, विशोधि, अ्रध्ययनपटुकवर्ग, न्याय, झ्ाराधना श्र मागे । इन नामों में किचितू अरथभेद होने पर भी सभी नाम समान श्रथ को ही व्यक्त करते हैं । ः प्रथम आर श्रन्तिम तीर्वकर के श्रमणों के लिये यह नियम है कि वे श्रनिवायं रूप से आवश्यक करें । यदि श्रमण श्रीर श्रमणियां श्रावश्यक नहीं करते हैं तो श्रमणधर्म से च्युत हो जाते हैं । यदि जीवन में दोप की फालिमा लगी है तो भी श्र नहीं लगी है तो भी श्रावश्यक श्रवश्य करना चाहिये । श्रीवश्यकनियुं क्ति में स्पष्ट रुप से लिखा है कि प्रथम श्रौर चरम तीर्थकरों के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म प्ररूपित किया गया है ।* 5 श्रावकों के लिये भी श्रावश्यक की जानकारी श्रावश्यक मानी गई है । यही कारण है कि ध्वेताम्बर परम्परा में वालकों के धार्मिक श्रध्ययन का प्रारम्भ ्रावश्यकसूत्र से ही कराया जाता है । आवश्यकसुत्र के छह श्रंग हैं-- १. सामायिक--समभाव की साधना, २. चतुविशततिस्तव--चीवीस तीथंकर देवों की स्तुति । ३. वन्दन--सदुगुद्मों को नमस्कार, उनका गुणगान, '४. प्रतिक्रमण--दोपों की श्रालोचना, ४. कायोत्सग--शरीर के प्रति ममत्वका त्याग, ६. प्रत्याख्यान--श्राह्ार श्रादि का त्याग । श्रनुयोगद्ार में इनके नाम इस प्रकार दिये गये हूँ १. सावद्य योगविरतति (सामायिक); २. उत्कीतंन ११. समग्रस्यापि गुणग्रामस्यावासकमित्यावासकमू ।. --श्रतुयोगद्वार मलघारीय टीका, पृष्ठ २८ १२. समणेण सावएण य, श्रवस्स कायव्वयं हवद् जम्द्ा । अन्ते श्रह्दो-निसस्स य, तम्द्दा आआवस्सयं नाम ॥। -झावश्यकवृत्ति, गाथा २, प्रृष्ठ ५३ २३. सपड़िक्कमणों धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । ड मज्किमयाण जिणाणं, कारणजाएं पडिक्कमणं ॥। -दवश्यकनियुं त्ति, गाथा १२४४ [ १७ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now