जिज्ञासा के पंख समाधान का आकाश | Jigyasa Ke Pankh Samadhan Ka Akash

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Jigyasa Ke Pankh Samadhan Ka Akash by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररन उत्तर : अपने आसपास ७ लोगो को आश्चर्य होने लगा। ज्यो-ज्यो समय बीतता गया, मे अधिक काल्पनिक बनता गया। मेरी परिकल्पनाओ मे स्वय का निर्माण, अपने अध्ययन का विकास, साधु-साध्चियों की शिक्षा, साहित्य-सूृजन, प्रचार-प्रसार, जैनदर्शन का आधुनिक रूप मे प्रस्तुतीकरण, आगम-सपादन, समाज में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा, नया मोड, स्वाध्याय की रुंचि का निर्माण, साध्वियो का नेतृत्व, अध्ययन की नई विधाओ का विकास, अध्यात्म की गहराई मे प्रवेश आदि अनेक बाते थीं । सघ की आतरिक व्यवस्थाओ के संबंध मे भी मेरी अनेक कल्पनाए थीं । कुछ कल्पनाओ को उसी समय आकार मिल गया और कुछ धीरे-धीरे साकार होती रही। हमारे चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने इस दिशा मे वहुत परिष्कार किया था। फिर भी कुछ वाते अमुक-अमुक युग मे होने की होती है। मै अपने धर्मसघ की मौलिक मर्याठाओ को अक्षुण्ण रखता हुआ सामयिक मूल्यों की स्वीकृति के पक्ष मे हू। इसी चितन के आधार पर मैने अपने करणीय कार्यों का एक प्रारूप तैयार किया और उसकी क्रियान्विति मे मुझे मत्री मुनि मगनलालजी स्वामी का पूरा समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हुआ । पता नहीं वे नये युग के थे या पुराने युग के, मेरे युगीन चितन को उन्होने सदा महत्त्व दिया और मेरा सम्पूर्ण धर्मपरिवार मेरे कार्य मे सहयोगी रहा। + दायित्व की चहर पाच-सात वर्ष भी ओढ ली जाए तो व्यक्ति को भार की अनुभूति होती है। आप लम्वे समय से सघ को नेतृत्व दे रहे है। सुदीर् प्रशासनिक काल मे आपका क्या अनुभव रहा? आप आज भी अपने आपको तरोताजा महसूस कैसे कर रहे है? जो लोग दायित्व पाने के लिए उम्मीदवारी मे खडे होते है, उनकी स्थिति कुछ भिन्‍न होती है। जिनको गुरु अपना दायित्व सौपते है, उनकी स्थिति दूसरी होती है। जिस व्यक्ति मे दायित्व-निर्वात




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