रत्नकरण्डक श्रावकाचार Ac 6320 | Ratnkrndak Shravkachar Ac 6320

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Ratnkrndak Shravkachar Ac 6320 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द्े एक मात्र पथप्रदशक होते थे । देशमें उस समय मुनिजनोंकी खासी बहुढता थी और उनका प्रायः हरवक्तका सत्सभागम बना रद्दता था । इससे ग्दस्थ लोग धर्मश्रवणके लिये उन्दींके पास जाया करते थे ओर धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हींसे अपने लिये कभी कोई ब्रत, किसी खास व्रत अथवा ब्रतससूहकी याचना किया करते थे । साधुजन थी श्रावकोंको उनके यथेष्ट कर्तव्य कर्मका उपदेश देते थे, उनके याचित ब्रतको यदि उचित समझते थे तो उस्रकी गुरुमंत्रपूवेक उन्हें दीक्षा देते थे और यदि उनकी शक्ति तथा स्थिति- योग्य उसे नद्दी पाते थे तो उस्रका निषेध कर देते थे; साथ ही जिस ज्रतादिकका उनके लिये निर्देश करते थे उसके विधिविधानको भी उनकी योग्यताके अनुकूल ही नियंत्रित कर देते थे । इस तरहपर गुरजनोंके द्वारा धर्मोपदेशको सुनकर धर्माजुष्ठानकी जो कुछ दिक्षा श्रावकोंको मिलती थी उसीके अनुसार चलना वे अपना धर्म--अपना कर्तव्यकर्म--समझते थे, उसमें * चूँचरा ' ( किं, कथमित्यादि ) करना उन्हें नहीं आता था, अथवा यों कहियें कि उनकी श्रद्धा और भक्ति उन्हें उस्र ओर ( संशयमागंकी तरफ ) जाने हीन देती थी । श्रावकोंमें सर्वत्र आज्ञाप्रघानताका साम्राज्य स्थापित था और अपनी इस प्रदृत्ति तथा परिणतिके कारण ही वे लोग श्रावक+# तथा श्राद्ध कहलाते थे । उस वक्त तक श्रावकधर्ममे, अथवा स्वाचार-विषयपर श्रावकोंमें तकंका प्रायः प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना आचार्योका परस्पर इतना सतभेद ही हो पाया था जिसकी व्याख्या करने अथवा जिसका सामंजस्य स्थापित * 'रणोति गुवोदिम्यो धर्ममिति श्रावक: ' ( सा० घ० टी० ) जो गुरु आदिकके मुखसे धर्म श्रवण करता हैं उसे श्रावक ( सुननेवाला ) कहते दें । संपत्तदंसणाईं पददियहं जदइजणा सुणेई य । सामायारिं परमं जो खलु त॑ सावगं बिन्ति ॥ --श्रावकप्रज्ञप्ति । जो सम्यग्दशनादियुक्त ग्रहस्थ प्रतिदिष मुनिजनोके पास जाकर परम सामा- चारीको ( साधु तथा गददस्थोके आचारविशेषको ) श्रवण करता दे उसे *ावक' कहते दें । >६ श्रद्धासमन्वित अथवा श्रद्धा-गुण-युक्तको * श्राद्ध ' कहते दे, ऐसा हेमचंद्र तथा श्रीघरसेनादि आचार्योने प्रतिपादन किया दे । मुनिजनोंके आचार-विचारमें श्रद्धा रखनेके कारण ही उनके उपासक “ श्राद्ध * कहलाते थे ।




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