विशाल शब्द सागर | Vishal Shabd Sagar

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Vishal Shabd Sagar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंतर्वाष्प, झन्तवॉष्प झंतर्वाप्प, झन्तर्वाष्प [संज्ञा पु.] (स'.) दुःख जिसमें आांसू न निकलें। ' . '' शंतर्विकार थन्तर्विकार [संक्ता. पु.] (४) शरीर |' का विकार जैसे भूख, प्यास इत्यादि। .. अंतरेंग, झन्तवेंग [संज्ञा पु.] : (सं) मेन के: भीतर की चिन्ता । भीतंरी व्याकुर्लता । श्रतरवेगीज्वर, झन्तर्वेगीज्यर [सत्ता पु.] -() एक प्रकार का र्वर जिसे कप्रग्वर भी. कहते इसमें रोगी फे भीतर दाह, प्यास, चफर, सिरद्द तथा पेट में पीड़ा होती है। सतचद्‌, अन्तवद [संक्ता पु] (#.). ₹--गयसा तथा यमुना के मध्य को. देश । ; घाव । र--दो श्राव। ३--य्ट देश जिसमें यत्त फरने की वेदियां हों। ' झंतर्ेदी, भन्तवेंदी [६वि.] (सं) गंगा तथा यमुना '.. के घीच के देश का रदने घाला। श्नन्तर्वेद का निवासी । ' शतचंध, अन्तबंध [संक्ञा पुर] (सं) “शरीर की यांठों में होने वाला दुदे 1... सवचरम, भन्तपरम [संक्ा पुर] (सं), उनान- खाना । 'घन्तःपुर । श्रंतर्वाशिक, श्रन्तर्पेशिक [संता पु.] (४३ 'अंत पुर का रत्तक ।, जनानखाने का पहरेदार्‌.! झंतर्वेश्मिक, भन्तर्वेश्मिक . [संह्ा-पु.] (0) .. शन्तःपुर की रखवाली करने घाला । अतहास, अन्तहास [संघ पु.पु (सं भीतर ही मीतर हँसना । शुप हँसी । सुस्कराहट: । झंदर्दित, श्न्तहिंत [िनु (से पटश्य । छिपा- |. हंस | गायव। गुप्त । विरोहिंत। अतलघु, अन्वलघु [संक्षा पु] (से) दरें. का घहद. वर्ण, 'जिसके ' झंत में 'लघुवणे अथवा |! मात्रा हो। ऐसा शब्द जिसका श्वन्तिम चर्ख |! लघु झे कि अन्तवण [संज्ञा पु] (से श्वन्विम चर का 1 शुद्र धंतविदारण, श्रन्तविदारण [संप्ा पु (४) सूये '्ीर चन्द्रमहण के दस मोक्ों में से एक भत्ता, .अन्तचला [सा स्त्री व (ते अन्तिम समय । मरणकाल । नाश. का .समय । 'अवराप्या, झन्तशय्या सिंघा स्त्री, (के) १-- खसत्युशय्या । * र--श्मशोान । मरघट 1 .. रे सत्खु ” अतरदंदू , अन्तरछद [संज्ञा पु (ं.) भीवर का तल । मिद्राव केनीचे/का तल] अत्तसू , अन्तसू [संज्ञा पु (सं) भन्तःकरण । हृदय 1'चित्त। सन 1: एफ श्रतसदू ', अन्तसदू पू-संज्ञा पु. गे (सं) चेलो | शिंप्य । “एप 12 भतसमय, अन्तसमय संज्ञा. पु (3 न्ेन्तिम संभय ।'मंरणकाल 1 मुद्युकाल्न 1 - : «मी ' (६3 भीतरी उप्णता । मध्यचर्ती । चीच का । प्न्तस्थ कहदल,ते हैं । स्पर्श तथा -उपध्सवर्णों चीच घाले-च्णे.। द :. के भीतर का । अन्वतश्फप्ण फा। २--मीतरी । भीतर स्थित + समाप्ति पर किया जाने चला स्नान 1 श्रंतरसलिल, अ्रन्तस्सलिल [वि.] (व) जिसके जल काःप्रचाह भीतर हो चाहर न दीखे । प्रतरसालिला, श्रन्तस्सलिला संता स्त्री (सं. : , - सरसचती नदी । फल्टु-नदी । घंताराष्ट्रीय, अन्ताराष्ट्रीय -[वि.] .'देखो “अन्त राट्रिय । ः प्ातों का समुदाय । २--परप्रश्य चंशे 'यथा 'चारढाल याद । अंतावसायी, श्न्तावसायी [ संक्ञा घु. ] (हं. ) ' ' श-नाई ! हलाम। र--ईिंसेक । घारडाल । पड़ोस । समीप । पास 'का अंतिकता, 'अन्तिकता [संझा स्त्री.) (व) पड़ोस हृद दर्जे -का। 'चरसे 3 महाम्रस्थान । धन्तिम सफर। घन्तकाल 1 सृत्युग, मीत 1 ! 3 !_ जनानख़ाना। छंतिमेरथमु, अस्तिपरेस्मू [लंच ः दर । 'पल्ट झतवासां, सा [संज्ञां पु. (सं १--चेला शुरु के पास रहने वाला!।.रे-->गांव के चादर रहने! घाला.। श्न्त्यज 1: चाणएडाल 1 ः “की. वह: इन्द्रिय जो 'संकलप-विकल्प, निश्वय: स्मरण तथा सुखदुखादि का अनुभव करती है !. ₹-मन को शुद्ध करने वाला: के 1: रे प्रकट फर्म, ; -.. . दंतःकोप, श्रत:कोप चघि.] (स'.) मन के रांदर का कोघ: 1: मानसिक कोप ंत्तस्ताप, श्न्तस्ताप [संज्ञा पु.] (सं) श्रान्तरिक ठग्स | मानासिक व्यथा। चित्त का संताप 1] ... “| संत्तस्थ, अ्न्तस्थ पवि.] (संग १--मभीठर का । सिंघ्ता पुन (व) य, र, ले, च यदद चारों चणे ंतस्थिति, अन्तस्थिति [वि.] (सं) ९--हृदय अतरनान, अन्तस्नान [संज्ञा पु.] (.) यज्ञ की ्रंदावरी, श्रन्तावरी [संज्ञा स्त्री,] (हि) 'घन्तद़ी 'ंतावशायी, श्न्तावशायी [ संझा पु. ] (2) श्-गाप कीं सीमा के घाहर चसने वाला । भंतिक, थन्तिकं [वि.] (सं) पास । निकट । झंतिकतम, झन्तिकतमं [वि.] : हे) बिलकुल, अंतिम, अन्तिम पचि.] (४3 अन्त का । 'संबंके 1: पीछे का 1 आखिरी । र-सबसे' चढ़कर. अंतिमयात्रा, अन्तिमयात्रा. [[संज्ञा स्त्री] (3 श्रंतेवर, श्न्तेवर [संज्ञा पु (ंक 'यंन्तसुर। | _ पं [संजय ] (कए) | श्रंत/करण, अन्तःकंरण [संज्ञा पु.] (४) :भीतर अतमक्रया, अन्तमंक्रया संज्ञा,स्त्री. मे (2. सुख, सुख पत:कोप, श्रन्त:कोप संज्ञा पु 3 (सह भरडार घर का भीतरी कमरा 1 अंतःपट, अन्तःपट [संक्ा पु.] (त) विवाह के छावसर पर वर तथा' कन्या के बीच ' लगाया जाने वाला'चस्त्र विशेष । 'अंतःपटी, अन्त।परी [संज्ञा स्त्री.] (8) १-- नाटक का परदा । र--परदे पर चित्रित पचत नगर, वचन छादिक दृश्य । अंतःपरिघी,अन्तःपरिधी : [संज्ञा स्त्री.] (स १--घेरे अथवा परिधि का भीतरी स्थान। र--सीन हरी लकड़ियों द्वारा -यज्ञ के लिए घेरा हुआ चीच का स्थान । झंतःपवित्रा, अन्तःपचित्रा [वि.] (8) शुद्ध :.. चित्त चाली । निमल छन्तःकरण घाली । अंतःपुर, अन्तःपुर [संज्ञा पु.] (8. मदल के भीतर स्त्रियों के रहने की जगदद। रनिवास 17 '. जनानखाना। अतःपुरप्रचार, अन्त पुरप्र चार सिंक्षा पु 3 (सिर. स्त्रियों की गप्प । प्रपंच । छंतःपुरिक, झन्तःपुरिक [ संज्ञा पु..] (सा. ) जनानखाने का पहरेदार दरेदार : । झंतः्पुर रक्तक । फंचुकी । झतःपूजा, अ्न्त:पूजा [संज्ञा स्त्री-] (स .) कल्पित्त , 1. घरतु द्वारा देवता .की पूजा। इच्छित फल प्राप्ति की ाशा में चढ़ावा चोलना । उंतःप्रज्न, अन्तःप्रज् . [संज्ञा पु.] (सं) श्वास :* -क्तानी । सस्वदर्शी .. अंत:शरीर, अन्तःशरीर [संज्ञा पु.] बेदान्त के छानुसार स्थूल शरीर के श्रन्द्र' का सूचम शरीर । लिंग शरीर । _अंत:श्य,-श्रन्तश्शल्य [वि] (त 3: सर्मसेदी गांसी के समान हृदय सें चुभने वाला । [ंतःशुद्धि, झ्न्तःशद्धि, [ संज्ञा पुन] (सं) हृदय '. की पवित्नता 1: अन्तः्करण की ,सिमलता। - ! _ दिल की सफाई । अतःसज्ञा, अन्तसन्ना ..[ संज्ञा पु.) (स:- वह - 1. जीव जो 'झपने सुख-दुग्ख, के व्मनुभव .को प्रकट न कर सके यथा-नचृक्त या पद । उंतःस॒त्वा, झन्तःसत्वा [बि.] (सा गर्भवठी। ' हामला। ह संज्ञा पु.] मिलांचा । क झंतःसारं, अन्तःसार [संज्ञा पु.] (स ) ांतरिकं 1. तत्व । रुररुती 1 न _ ' वि्ु जी भीतरोंसे खोखला न हो । जिसके * भीतर कुछ . तत्व हो । . जिसके भीतर कोई प्रयोजनीय पंदाथे हो । «. ः उअतःसारवान, अन्त सारवाम घि.ु, (व) जो पोला न.द्ी । -जिसके, भीतर कुछ तत्व हो काम,का-! प्रयोजनीय 1 तत्व पूरण ंत:स्वेद, झन्तःस्वद [संज्ञा पुर] (स) होथी । , अंत/सुख, अन्तःसुख . [वि..] -(स जे ात्मा-का 1 उय । दा पर सुख! .....




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