अध्यात्म रहस्य | Adhyatam Rahsya

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Adhyatam Rahsya by जयंतीप्रसाद जैन - Jayantiprasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रत्तावना ७ चाचक है। यहाँ झात्माका “स्व विशेषश अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातका संधोतक है कि प्रत्येक संसारी जीवका आत्मा भन्प जीबोंके आत्माओंसे अपना पथक व्यक्तित्व और अस्तित्व रखता है, बह किसी एक ही (सर्वथा भंद्रेत) अखणुड आत्माकां अंशभूत नहीं है और इसलिये न्रह्माइतवादी वेदान्तियोंने संसारी जीबोंके पृथक अस्तित्व और व्यक्तित्कको न मानकर उन्हें जिस सर्वथा नित्य, शुद्ध, एक, निगु ख॒ओर स्वव्यापक ब्रह्षका अंश माना है वह श्रह्म थी यहों 'परब्रह्म' पदके द्वारा अभिग्रेत नहीं है । वेसे किसी प्रह्झका अस्तित्व तात्विकी जेनदष्टिसे घनता ही नहीं । और इसलिये यददोँ परन्रश्न पदक़ा अभिश्राय उस पूर्णतः बिकासको प्राप्त सुक्तात्माका है जो अंनादि- अविद्याके वश संलग्न हुई द्रब्य-भावरूप कर्मोपाधि और तज्ञन्य विमाव-परिणतिरूप अशुद्धिको दूर करता हुआ अपनी स्वामाविकी परमविशुद्धि एवं निमलताकों प्राप्त होता है और इस तरह प्राप्त अथवा आविसू त हुई शुद्धावस्थाको विकार- का कोई कारण न रहनेसे सदा अज्जुएण बनाये रखता है । ऐसे ही परब्रह्नके ध्यानसे, जो अपने आत्म-प्रदेशोपे सत्र व्यापक नहीं दोता, 'सो$हं” इस सच्म शब्दर्घके द्वारा मनको संस्कारित करनेंका ग्रन्थमें उल्लेख है (४४) । 'सो$ई' पदमें 'सः' शब्द उसी परब्रज्का वाचक है--न कि




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