प्रशस्ति संगरा | prashasti Sangara (1950)ac 4137
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
341
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( शर )
पंदानन्दि का शिप्य लिखा है | अपने जबरदस्त प्रभाव के कारण इन्होंने एक नयी भट्टारक परम्परा की स्थापना
की । इनकी परम्परा में अहझमजिनदास, ज्ञानभूषण, शुभचन्द्र आदि उच्च कोटि के साहित्य निर्मात! हुये ! इन्होंने
सभी भाषाओं में साहित्य सजेना को । आदिपुराण, घन्यकुमार चरित्र, पुराणसारसंप्रह, यशोधर चरित्र, व द्ध-
मानपुराण, शादि रचनायें संस्कृत में णमोकारमन्त्रफलगीत, अआर।धनासार श्रादि रचनायें हिन्दी में लिख्ीं ।
३१. सकलगूपण-- भट्टारक शुभचन्द्र के समय के विद्वान् थे । इन्होंने भट्टारक शुभचन्द्र के पास ही
अध्ययन किया श्मौर उन्हीं की देख रेख में ग्रन्थ रचना की । शुभचन्द्र ने करकण्ड्चरित्र के निर्माण में इनसे
काफी सहायता ली थी 1 सकलेभूषण भट्रारक वादीमसिंद के शिप्य एवं सुमतिकीर्ति के बड़े भाई थे । सन्
१६२७ में इन्होंने स्वतस्त्र रूप से उपदेशरदनमाला नामक प्रथ का निर्माग़ किया । रचना सुन्दर ण्वं
सरस है ।
३२. सॉमकीत्ति -- भट्टारक रामसेन की शिप्य परम्परा में से भट्रारक भीमसेन के शिष्य थे । इन्होंने
संबत्ू १५३८ में प्रयम्नचरित्र को समाप्र किया था ।
३३. सोमप्रभसूरि-- सिन्दूर प्रकरण कवि की रचना है। इसमें श्रच्छी २ सूक्तियां हैं । इसका हिन्दी
झनुवाद महाकवि बनारसीदास एवं कौरपाल ने मिलकर किया था । इसी से उक्त रचना का महत्त्व जाना जा
सकता है । इसका दूसरा नाम सूक्तमुक्तवली भी है । कवि ने विजयसिंहाचाब के चरण कमलों में बठ कर इसकी
रचना की थी ।
रेप. शतमागर- ये १६ बॉ शताब्दी के विद्वान थे । इनके गुरू का नाम विद्यानंदि था । श्रुनसागर
ने अपने को कलिकालसबज्ञ, कलिकालगतम, उमयभा पाकवि चक्रवर्ति, उ्याकरणुकमलमातेण्ड श्ादि श्रलेक विशे-
घणों से अलंक्ृत किया है । इन्होंने अधिकांश ग्रन्थों की टीका लिखी है उनमें से यशस्तिज्कर्चान्द्रका, तन्वाथबत्ति
जिनसहस्रनामटी का श्ौदायचिन्तामणि, महा भिषकर्टी का, ्तकथाकोप श्रादि रचनाये उल्लेखनीय हैं !
३५, शुभचन्द्र-- भट्टारक शुभचन्द्र १६-१७ वीं शताब्दी के महान“साहित्य सेवी थे । भट्टारक सकलकीलि
की परम्परा में श्रापका स्थान सर्वश्र प्र है । पटभा पाक विच्वक्रवर्ति, जिविधवियाघर श्ादि बिशेषणों से छणप जनता
द्वारा बिभूषित किये गये थे । शआपने सिद्धान्त एवं पुराण साहित्य का. गम्भीर अध्ययन किया था । इन्हंनि
संस्कृत में ४८ से भी अधिक प्रन्थों की रचना की है । इनमें से चन्द्रप्रमुर्त्र, जीवयर चरित्र; पाण्डबपुराण
श्रेशिकर्चारित्र, स्वामीकार्नि केयानुप्रे्ष की टीका आदि उल्लेखनीय हैं ।
३६. हषकीसि-- इन्होंने योगचिन्तामणि प्रन्थ का सप्रह किया था । यह आयुर्वेद का प्रसिद्ध गन्थ
माना जाता है । इनका सम्बन्ध नागपुर के तपोगच्छ से था तथा चन्द्रकीररि इनके गुरू थे ।
प्राकृत-अपभ्ेश ग्रन्थों के लेखक
३७, स्वर्यंश्ु--अपध श भाषा के श्याचार्योी में शाप सबसे प्राचीन श्याचार्य हैं । इनके पिता का नाम
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