प्रशस्ति संगरा | prashasti Sangara (1950)ac 4137

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prashasti Sangara (1950)ac 4137 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( शर ) पंदानन्दि का शिप्य लिखा है | अपने जबरदस्त प्रभाव के कारण इन्होंने एक नयी भट्टारक परम्परा की स्थापना की । इनकी परम्परा में अहझमजिनदास, ज्ञानभूषण, शुभचन्द्र आदि उच्च कोटि के साहित्य निर्मात! हुये ! इन्होंने सभी भाषाओं में साहित्य सजेना को । आदिपुराण, घन्यकुमार चरित्र, पुराणसारसंप्रह, यशोधर चरित्र, व द्ध- मानपुराण, शादि रचनायें संस्कृत में णमोकारमन्त्रफलगीत, अआर।धनासार श्रादि रचनायें हिन्दी में लिख्ीं । ३१. सकलगूपण-- भट्टारक शुभचन्द्र के समय के विद्वान्‌ थे । इन्होंने भट्टारक शुभचन्द्र के पास ही अध्ययन किया श्मौर उन्हीं की देख रेख में ग्रन्थ रचना की । शुभचन्द्र ने करकण्ड्चरित्र के निर्माण में इनसे काफी सहायता ली थी 1 सकलेभूषण भट्रारक वादीमसिंद के शिप्य एवं सुमतिकीर्ति के बड़े भाई थे । सन्‌ १६२७ में इन्होंने स्वतस्त्र रूप से उपदेशरदनमाला नामक प्रथ का निर्माग़ किया । रचना सुन्दर ण्वं सरस है । ३२. सॉमकीत्ति -- भट्टारक रामसेन की शिप्य परम्परा में से भट्रारक भीमसेन के शिष्य थे । इन्होंने संबत्‌ू १५३८ में प्रयम्नचरित्र को समाप्र किया था । ३३. सोमप्रभसूरि-- सिन्दूर प्रकरण कवि की रचना है। इसमें श्रच्छी २ सूक्तियां हैं । इसका हिन्दी झनुवाद महाकवि बनारसीदास एवं कौरपाल ने मिलकर किया था । इसी से उक्त रचना का महत्त्व जाना जा सकता है । इसका दूसरा नाम सूक्तमुक्तवली भी है । कवि ने विजयसिंहाचाब के चरण कमलों में बठ कर इसकी रचना की थी । रेप. शतमागर- ये १६ बॉ शताब्दी के विद्वान थे । इनके गुरू का नाम विद्यानंदि था । श्रुनसागर ने अपने को कलिकालसबज्ञ, कलिकालगतम, उमयभा पाकवि चक्रवर्ति, उ्याकरणुकमलमातेण्ड श्ादि श्रलेक विशे- घणों से अलंक्ृत किया है । इन्होंने अधिकांश ग्रन्थों की टीका लिखी है उनमें से यशस्तिज्कर्चान्द्रका, तन्वाथबत्ति जिनसहस्रनामटी का श्ौदायचिन्तामणि, महा भिषकर्टी का, ्तकथाकोप श्रादि रचनाये उल्लेखनीय हैं ! ३५, शुभचन्द्र-- भट्टारक शुभचन्द्र १६-१७ वीं शताब्दी के महान“साहित्य सेवी थे । भट्टारक सकलकीलि की परम्परा में श्रापका स्थान सर्वश्र प्र है । पटभा पाक विच्वक्रवर्ति, जिविधवियाघर श्ादि बिशेषणों से छणप जनता द्वारा बिभूषित किये गये थे । शआपने सिद्धान्त एवं पुराण साहित्य का. गम्भीर अध्ययन किया था । इन्हंनि संस्कृत में ४८ से भी अधिक प्रन्थों की रचना की है । इनमें से चन्द्रप्रमुर्त्र, जीवयर चरित्र; पाण्डबपुराण श्रेशिकर्चारित्र, स्वामीकार्नि केयानुप्रे्ष की टीका आदि उल्लेखनीय हैं । ३६. हषकीसि-- इन्होंने योगचिन्तामणि प्रन्थ का सप्रह किया था । यह आयुर्वेद का प्रसिद्ध गन्थ माना जाता है । इनका सम्बन्ध नागपुर के तपोगच्छ से था तथा चन्द्रकीररि इनके गुरू थे । प्राकृत-अपभ्ेश ग्रन्थों के लेखक ३७, स्वर्यंश्ु--अपध श भाषा के श्याचार्योी में शाप सबसे प्राचीन श्याचार्य हैं । इनके पिता का नाम




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