मेरी जीवन गाथा भाग १ | meri Jeevan Gatha Vol 1 Ac 3988

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भे मेरी जीवनगाथां न जाने कहाँ से पवित्रताका प्रवाह बहने लगता है । बनारसमें स्याद्ाद विद्यालय और सागरमें श्री गणेश दि० जेन विद्यालय स्थापित कर आपने जैन संस्कृतिके संरक्षण तथा पोषणके सबसे महददान्‌ कार्य किये हैं । इतना सब द्वोनेपर भी ब्याप अपनों प्रशंसासे दूर भागते हैं । अपनी प्रशंसा सुनना आपको बिलकुल पसंद नहीं है । और यही कारण रहा कि आप अपना जीवनचरित लिखनेके लिए. बार-बार प्रेरणा होनेपर भी उसे टालते रहे । बे कहते रहे कि 'भाई ! कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि लोककल्याण- कारी उत्तमोत्तम महापुरुष हुए जिन्होंने श्रपना चरित कुछ भी नहीं लिखा । में अपना जीवन क्या लिखेूँ ? उसमें है ही क्या ।' अभी पिछले वर्षोमें पूज्य श्री जब तीथराज सम्मेदशिखरसे पैदल भ्रमण करते हुए; सागर पधघारे और सागरकी समाजने उनके स्वागत समारोइका उत्सव किया तब वितरण करनेके लिए. मैंने जीवनभॉँकी नामकी १६ प्रष्ठात्मक एक पुस्तिका लिखी थी । उत्सवके बाद पूज्य वर्णीं जीने जब वह पुस्तिका देखी तब हँसते हुए बोले “अरे ! इसमें यह क्या लिख दिया ! मेरा जन्म तो हेसेरामें हुआ था तुमने छहरीमें लिखा है और मेरा जन्मसंवत्‌ १६३१ है पर तुमने १६३० लिखा है। बाकी सब स्तुतिवाद है । इसमें जीवनकी भाँकी है ही कहाँ ?” मैंने कहा, “जाचानी ! आप अपना जीवनचरित स्वयं लिखते नदीं हैं और न कभी किसीको क्रमबद्ध घटनाश्रोकि नोट्स हो कराते हैं । इसीसे ऐसी गलतियाँ दो जाती हैं। में क्या करूँ ? लोगोंके मुंहसे मैंने जेसा सुना वैसा लिख दिया |? सुनकर वह हँस गये और बोले कि अच्छा अत्र नोट्स करा देवेंगे | मु प्रसन्नता हुई । परन्तु नोट्स लिखानेका अवसर नहीं आया । दूसरी वर्ष लंबलपुरमें आपका चातुर्मास हुआ । वहाँ श्री घ्र० कस्तृरचन्द्र जी नायक, उनकी घमपत्नी तथा ब्र० सुमेंरुचन्द्रजी जगाघरी आदिने जीवन- चरित्र लिख देनेकी आपसे प्रेरणा की । नायकन बाईने तो यहाँ तक कहा कि मद्दाराज ! जबतक आप लिखना शु& न कर देंगे तबतक मैं भोजन न करू गी । फलतः अवकाश पाकर उन्होंने स्वयं ही लिखना शुरू किया




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