ब्रह्मासूत्रसँकराभस्यम भाग २ | The Brahmasutra Sankarabhasya Of Sri Sankaracharya Part-ii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाद: १ ] तद॒स्तरघतिपत्यधिकरणभाष्यम्‌ ६६७ समूह के निर्वचनरूप (वे दोनों सायं-प्रात:कालिक ये आहृति हुत होने पर उत्क्रमणा करते हैं ) इत्यादि वाक्यदोप हारा अगिहोत्र आहुतियों की कलारम्भ के लिये लोकान्तर में प्राप्ति प्रदर्शित कराई गई है । इससे आहुतिमय जलों से परिवेष्टित जीव अपने कर्मफल मोग के लिए गमन कहते हैं । यह प्रतिज्ञायुक्त होती है ॥ ६ ॥ थे पुनरिदमिष्रादिकारिणां स्वकसंफलोपभोगाय रंहणं प्रतिज्ञायते यावता तेपां 'घूमप्रतीकेन बत्मना चन्द्रमससमधिरूढानामन्नभाव॑ दर्शयति- एप सोमो राजा तदेवानामन्ने त॑ देवा भक्षयत्ति” ( छा० शाशण४ ) इति | ते चन्द्र प्राप्यान्न भवस्ति तांस्तत्र देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्ी- यस्वेत्येवमेतांस्तत्र सश्रयन्ति” ( बु० धार१६ ) इति च. समानचिपय श्ुत्य- न्तरम्‌ू । नच व्याघादिमिरिव देवेसक्यमाणानामुपभोग: संभवत्तीति । अत उत्तर पठतिं | फिर चौंका होती है कि इ््रा दिकारी का स्वकर्मफलोपभोग के लिये यह गमन होता है, यह प्रतिज्ञा कंसे की जाती है, जब कि ध्रुमरूप अज़वाले मार्ग द्वारा चदलोक में अधिरूढ ( प्राप्त ) उन कर्मकर्ताओं के अन्नभाव ( अन्नरूपता ) को श्रुति दिखाती है कि ( यह सोम राजा होता है वंह देवों का अन्नरूप होता है, उसको देव भक्षण करते हैं ) यहाँ यदि कहा जाय कि , सोम अन्न होता है, इ््रादिकारी नहीं होता है, तो दूसरी शुपि स्पष्ट ही कंहूती है कि ( इस चन्द्र को प्राप्त होकर अन्न होते हैं, और वहाँ इन प्रादिकारियों को देव ' इस प्रकार भक्षण करते हैं कि-'जेसे यन्न में-सीमलतानामक राजा को पुन:-पुनः चढाकर और कय करके ऋत्विंकू,पीते--मेशणा करेतें हैं.) यह श्रुति प्रथम श्रुचि के तुल्य विपयवाली है । व्याघादि से -म्यमाण ( भधिते पके, सिमान देवों से भक्ष्पमाणो को उपभोग का सम्भव नहीं है । ऐसी शंका हो सकती है, इससे उत्तर पढ़ते हू किन का मे मे न थे दा मभ थम | कि चह बीस ., भाक्तं वाइनात्मवित््वात्तथाहि ददायत्ति ॥ *8पा' का शब्दय्दोदितदोपब्यावतनाथः 1 भाक्तमेपामन्नत्व॑ न मुख्यम्‌, मुख्ये हास्नत्वे स्विगंकासों यजेत” इत्येवंजातीयकाधिकारश्रतिरुपरध्येत । चन्द्रमण्डले येदि्रादिकारिणामुपभोगो न स्यात्किसर्थेसविकारिण इायायासवहुर्ल करें कुर्यु: | अनगशब्दश्ो पभोगदेसुव्वसामान्यादनन्रे5प्युपचयंमाणों चृश्यते; यथा बिशोइनं राज्ञां पशवोडने विशासिति | तस्मादिप्रलीपुत्रमित्रडुत्यादिमिसिव गुणभावोपरावैरिट्रादिकारिसियंदसुखबिहरण देवानां तदेवेपां सक्षणमभिग्रेतं से मोद्कादिवजवर्ण लिगरर्ण वा । न हु वे देवा अश्नन्ति न पिचन्त्येतदेवासतं चटा दृप्यन्ति' ( छा शदा१ ) इति च देवानां चवणादिव्यापारं वारयत्ति | तेपां चेट्टादिकारिणां देवास्प्रति शुणभावोपगतानामप्युपभोग उपपद्यते राजो-




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