ब्रह्मासूत्रसँकराभस्यम भाग २ | The Brahmasutra Sankarabhasya Of Sri Sankaracharya Part-ii
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
419
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पाद: १ ] तद॒स्तरघतिपत्यधिकरणभाष्यम् ६६७
समूह के निर्वचनरूप (वे दोनों सायं-प्रात:कालिक ये आहृति हुत होने पर उत्क्रमणा
करते हैं ) इत्यादि वाक्यदोप हारा अगिहोत्र आहुतियों की कलारम्भ के लिये
लोकान्तर में प्राप्ति प्रदर्शित कराई गई है । इससे आहुतिमय जलों से परिवेष्टित
जीव अपने कर्मफल मोग के लिए गमन कहते हैं । यह प्रतिज्ञायुक्त होती है ॥ ६ ॥
थे पुनरिदमिष्रादिकारिणां स्वकसंफलोपभोगाय रंहणं प्रतिज्ञायते
यावता तेपां 'घूमप्रतीकेन बत्मना चन्द्रमससमधिरूढानामन्नभाव॑ दर्शयति-
एप सोमो राजा तदेवानामन्ने त॑ देवा भक्षयत्ति” ( छा० शाशण४ ) इति |
ते चन्द्र प्राप्यान्न भवस्ति तांस्तत्र देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्ी-
यस्वेत्येवमेतांस्तत्र सश्रयन्ति” ( बु० धार१६ ) इति च. समानचिपय श्ुत्य-
न्तरम्ू । नच व्याघादिमिरिव देवेसक्यमाणानामुपभोग: संभवत्तीति । अत
उत्तर पठतिं |
फिर चौंका होती है कि इ््रा दिकारी का स्वकर्मफलोपभोग के लिये यह गमन होता
है, यह प्रतिज्ञा कंसे की जाती है, जब कि ध्रुमरूप अज़वाले मार्ग द्वारा चदलोक में
अधिरूढ ( प्राप्त ) उन कर्मकर्ताओं के अन्नभाव ( अन्नरूपता ) को श्रुति दिखाती है कि
( यह सोम राजा होता है वंह देवों का अन्नरूप होता है, उसको देव भक्षण करते हैं )
यहाँ यदि कहा जाय कि , सोम अन्न होता है, इ््रादिकारी नहीं होता है, तो दूसरी
शुपि स्पष्ट ही कंहूती है कि ( इस चन्द्र को प्राप्त होकर अन्न होते हैं, और वहाँ इन
प्रादिकारियों को देव ' इस प्रकार भक्षण करते हैं कि-'जेसे यन्न में-सीमलतानामक
राजा को पुन:-पुनः चढाकर और कय करके ऋत्विंकू,पीते--मेशणा करेतें हैं.) यह श्रुति
प्रथम श्रुचि के तुल्य विपयवाली है । व्याघादि से -म्यमाण ( भधिते पके, सिमान
देवों से भक्ष्पमाणो को उपभोग का सम्भव नहीं है । ऐसी शंका हो सकती है, इससे
उत्तर पढ़ते हू किन का मे मे न
थे दा मभ थम |
कि चह
बीस .,
भाक्तं वाइनात्मवित््वात्तथाहि ददायत्ति ॥ *8पा' का
शब्दय्दोदितदोपब्यावतनाथः 1 भाक्तमेपामन्नत्व॑ न मुख्यम्, मुख्ये
हास्नत्वे स्विगंकासों यजेत” इत्येवंजातीयकाधिकारश्रतिरुपरध्येत । चन्द्रमण्डले
येदि्रादिकारिणामुपभोगो न स्यात्किसर्थेसविकारिण इायायासवहुर्ल करें
कुर्यु: | अनगशब्दश्ो पभोगदेसुव्वसामान्यादनन्रे5प्युपचयंमाणों चृश्यते; यथा
बिशोइनं राज्ञां पशवोडने विशासिति | तस्मादिप्रलीपुत्रमित्रडुत्यादिमिसिव
गुणभावोपरावैरिट्रादिकारिसियंदसुखबिहरण देवानां तदेवेपां सक्षणमभिग्रेतं
से मोद्कादिवजवर्ण लिगरर्ण वा । न हु वे देवा अश्नन्ति न पिचन्त्येतदेवासतं
चटा दृप्यन्ति' ( छा शदा१ ) इति च देवानां चवणादिव्यापारं वारयत्ति |
तेपां चेट्टादिकारिणां देवास्प्रति शुणभावोपगतानामप्युपभोग उपपद्यते राजो-
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