अन्तर्नाद | Antarnad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रतीक्षा
ना
कब की खड़ी हूँ, प्रियतम ! पुकासते-पुकारते थक गयो,
जीभ में छाले पड़ गये, पर तुम न आये !
इस विजन वन में अकेली मैं ही हूं। चारों ओर अंधेरा-दी-
अंधेरा छा रहा है । तरंगिणी का कक रव भी मन्द पड़ता
जाता है । जान पड़ता है, दवा भी अपनी अठखेलियाँ बन्द कर
सोने जा रही है । सामने के काले भयावने गिरि-दिखरों की
ओर तो आँख खोल कर देखा भी नहीं जाता । बड़ी सनसनादट
है । पेड़ों पर बसेरा लेनेवाली चिड़ियों के परों को फड़फड़ादट
ही, रुक-रूक कर, इस घोर सन्नाट को चोरती है। इसी से
थोड़ा-बहुत घीरज बूँघा है । नाथ ! अंचल से ढका हुआ यह
निस्नेद दीपक कबतक टिमटिमायगा ?
पेर कॉप रहे हैं । हृदय घक-घक कर रहा है । पलकें भी
भारी होती जाती हैं । दारीर पसीज उठा है । गढा सुघ आया
है । बड़ी घबराहट मालूम होती है । क्या करू; कया न करूँ ?
न खड़ा ही रहा जाता है, न लौटते दी बनता है । छोट्टूँ भी, तो
कहाँ, क्रिस ओर ? अब न मेरा कहीं घर है, न द्वार । न सखी
है, न सहेली । न सजन हे, न परिजन । न कुछ है, न
कानि । फिर किघर जाऊँ, कहाँ रहूँ ? पूरब-पच्छिम का भी
तो ज्ञान नहीं । नाथ ! तुम्हारे मन में आखिर है क्या ? यद
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