अन्तर्नाद | Antarnad

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Antarnad by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रतीक्षा ना कब की खड़ी हूँ, प्रियतम ! पुकासते-पुकारते थक गयो, जीभ में छाले पड़ गये, पर तुम न आये ! इस विजन वन में अकेली मैं ही हूं। चारों ओर अंधेरा-दी- अंधेरा छा रहा है । तरंगिणी का कक रव भी मन्द पड़ता जाता है । जान पड़ता है, दवा भी अपनी अठखेलियाँ बन्द कर सोने जा रही है । सामने के काले भयावने गिरि-दिखरों की ओर तो आँख खोल कर देखा भी नहीं जाता । बड़ी सनसनादट है । पेड़ों पर बसेरा लेनेवाली चिड़ियों के परों को फड़फड़ादट ही, रुक-रूक कर, इस घोर सन्नाट को चोरती है। इसी से थोड़ा-बहुत घीरज बूँघा है । नाथ ! अंचल से ढका हुआ यह निस्नेद दीपक कबतक टिमटिमायगा ? पेर कॉप रहे हैं । हृदय घक-घक कर रहा है । पलकें भी भारी होती जाती हैं । दारीर पसीज उठा है । गढा सुघ आया है । बड़ी घबराहट मालूम होती है । क्या करू; कया न करूँ ? न खड़ा ही रहा जाता है, न लौटते दी बनता है । छोट्टूँ भी, तो कहाँ, क्रिस ओर ? अब न मेरा कहीं घर है, न द्वार । न सखी है, न सहेली । न सजन हे, न परिजन । न कुछ है, न कानि । फिर किघर जाऊँ, कहाँ रहूँ ? पूरब-पच्छिम का भी तो ज्ञान नहीं । नाथ ! तुम्हारे मन में आखिर है क्या ? यद [५४




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