श्री दशलक्षण धर्म | Shri Dashlakshan Dharm

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Shri Dashlakshan Dharm by दीपचन्द वर्णी - Deepchand Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्तम मा्दव । [१३ दिखला कर कर १ ऋतिशक, एसिरक इस : पक. जि ५४, सडक, सिर कि १९३%, ३९,९२९... क९५१९ ५४१७० जानेपर भी वह अपनेको नतमस्तक न करके नष्ाय: होजाता है, इसीको मान कषाय कहते हैं । इस कषायके उदय होते हुए विचार-झक्ति कम हो जाती हैं) देखो, ठंकाषिपति प्रतिवासुदेव दूशानन (रावण) जब सीताको हर ठाया और जब मंदोदरी आदि समस्त स्वजनोंने उसे समझाया कि. सीता रामचंद्रको पीछे दे दो और अपने पवित्र कुछमें फखी रूपी मठ न लगाकर सुखपूरवेक राज्य करो या वनमें जाकर तपश्चरण करो इसीमें हित है, तब उसने यही उत्तर दिया कि-- जानि हैं कायर मुझे चृपगण सभी संग्रामसे; तासे लड़ना है मुझे घुन बांधके अब रामसे । जीतकंर अपूं सिया . प्यारी जु उनके प्राणसे; यश होग मेरा विश्में बेशक सियाके दानसे ॥ ” अर्थात्‌--सब क्षत्रियगणोंको विदित होगया है कि रावण: सीताको हर छाया है और राम ढक्ष्मण युद्धके लिये भी आगये हैं सो यदि मैं सीताकों अभी रामके पास पहुँचा दूँ, तो क्षत्रियगण मुझे कायर समझकर हास्य करेंगे, इसछिये मैं रामचंद्र ठदमणकों युद्धमें जीतकर, सीता और उसके साथ बहुतसा द्रव्य देकर उन्हें बिदा करूंगा) किन्ु इस समय तो सीताकों न भेजकर केवल युद्ध करना ही अमीष्ट है इत्यादि । और इस प्रकार उस महापुरुषने अन्त तक-- पाण जाते हुए भी अपने प्रणको नहीं छोड़ा तथा वीरमूमिं (रणश्षेत्रमं ही सृद्युको प्राप्त हुआ 1 . इसीछिये संसारमें मानी पुरुषोंको -ठोग रावणंकी 'उपसा देकर




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