श्री योगवाशिष्ठ-भाषा [२] | Shri Yogavashishtha-Bhasha [2]
श्रेणी : धार्मिक / Religious, हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
47 MB
कुल पष्ठ :
612
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)के योगंवाशिष्ठ-भाषो # १३
नवां सर्ग
अधिद्या निरशारूरण
यह सुनकर रामजी ने वशिष्ठजी से पूछा कि हे भगवन् ! विष्णु
अर महेश आदिक तो शुद्ध निराकार वर्ण के हैं, आप
उनको झविद्या केसे कहते हैं ? वशिष्ठजी ने कहा--हे |
रामजी ! यह जानने के लिये पहले अविद्या और उसका तख !!
जानो । अविद्यमान का विद्यमान प्रतीत होना अदिद्या है ओर |?
जो संदेव विद्यमान है वह तख है । हे रामजी ! जो चिन्मात्र
सता शुद्ध संधित और कल्पना से रहित हैं वह तत्व है । उस तख
में अहं की भावना से जो संवेदन हुद्या वही उसका आभास हैं 1 |
यही संवेदन फुरकर स्थान-मेद से सूदषम स्थूल श्र मध्य भमावकों
प्राप्त हुआ है । फिर वही हद स्पन्द से मनभाव हुआ हैं । उस मन
के सातवकी, राजसी आर तामसी तीन स्वरूप हैं । वह्दी तीनों
त्रियणात्मक प्रकृतिधर्मिणी अविद्या है । उन तीनोंके तीन-तीन शुण
प्रथक-प्रथक हैं । इसलिये अविया के कुल नो गुण हैं । जितने भी
पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं सब में झविद्या के नवों णुण॒ दिद्यमान हें । !
ऋषि, मुनि; सिद्ध, नाग, विद्याथर और देवगण इत्यादिक अविया |
के सोलिक अंश से हैं ! नाग सातिक-तमास से और शेष आप
मुनि आदिक देवता साघिक राजस से तथा भगवान आर महादेव
केवल सातिक झाश से उत्पन्न हुए हें । हे रामजी ! सालिक झश
प्रकृत भाग है; उसमें जो तवेत्ता उत्पन्न हुए हैं वह मोह को नहीं
प्राप्त होते आर वह मुक्तिके साक्षात स्वरूप हैं ! भगवाद झौर महा
देवजी आदिक शुद्ध सात्विक हैं, इससे वह जगत में रहते हुए भी
सवंदा मुक्तिस्वरूप हैं । जब जगत में रहते हैं तब जीवन्मुक्त भाव
से रहते हैं और जब विदेदमुक्त होते हैं, तब परमेश्वर को प्राप्त होते
हैं। उस अविद्या के दो रूप हैं एक अविद्या और दूसरी. विद्या । |
अविद्या से ही विद्या उन्न होती है और विद्या से ही झविद्या का
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