भारतीय चित्रकला के मूल स्त्रोत | Bhaartiiya Chitrakalaa Ke Muul Strot
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
329
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ रस:
खिन्नननिधि समाप्त हो गई हैं । अतः अजता, बाप, सिगरिया आदि के मुफालिय तथा तर्क दीन सिटिय, विलोशुन,
भास, कालिदास बाणभट्ू के संस्कृत ग्रन्थों तथा कुछ बौद्ध साहियों थे बौमय निजोति देख पारस्परिक संबंध रखने
है । गुप्तकाल में हो वि्णुधर्मत्तिर पुराण की भी. रचना हुई थी. जिसमें खिजसुध हे. सी अपपावों मे चिमननिमाणि
विधि, चिवन्प्रदंसा, दिनकर द्वारा शुभ मुहर्न से सिशाकते प्रारन करता, विधि शान, रगर्तिसणिनाफ्िया,
सुमिबंधन, रसें, भाव आदि का संविस्तार वर्णन है । उस चिब्रसून को सगे नदययन सारे से यह रपट शाब होता
है कि अजंता, बाघ गुफालिनों के विधि-विधान में ह्ठी नियमों सा पास्यत शिगस सा है सौर कलिदाय के गयी मे
चित्र के अनेक उल्लेख इन्हीं शित्तिचित्रों से पुर्णत: मिललेजुष्ण हैं जनता थोड़ा सास्य पर /. पंख अभता में
वर्णित छदस्त जातक में अकित हाथियों को जल-केलिि, स्तम्भ पुसलिका, धास्वपधाम डिफे, परत दिस सयक रॉधवें,
विरही यक्ष बादलों में उडते, किन्नरनकिंन्री बाल बजाते, नागनसारिनी आदि |
चित्रसुत्र में धर से निधिश्वंग तथा दाखिपस दलाने का सरछिस हैं | गूपकालीस सुसिद्ध शासक समुह्गूस
के एक सुदर्ण-सिक्के पर देवी को हाथ में सिधिस्ंग लिए जकित किया सगा है सका जंकनें तेस्कारोन “अपना के
भित्तिचित्रों में नहीं दिखता । अज॑ता के अधिकास भागी के मीन के लिन कमी की अशावतापण मरी तरह
कषत-विक्षत कर दिये गये है, संभवत, गुर्हीं घिलों में यह्ठ शित भी सप्ट ही गसा हो 1. लिधिस्तुग कर लक झूम माना
जाता था और समाज मे बहुप्रचेलित' था, तभी उसका जंकेन फपाण काले मोर सुमन के कफ पर आस हीता है 1
इसी प्रकार पद्म के ऊपर शंख को अंकत करना भी सुभ माना जाता था । गसका ५ी अंकत नजया को १ वी गुफा
में भितियों तथा स्तंभों पर किया गया है । युसकाल मे दुन्यततिति को अमार्गधिक था. समुरों वा न्याय समझा भाठा
था । अतः शिल्प या चित्र में पमकता हयादि जभिपायों से उसे झलक किया. जाप था 1 कला का उदय शोधा
आर मांगलिक दिव्य पदार्थों के अक्न ढ्वारा आरक्षण भी था |
अजता के शिच्चों में आरलकारिकता के साथ ही सूक्ष्म मानवन्संवेदनाओं का भी अंखन है। इन मादगाओो
को प्रकट करने के छिए मुख्य रूप से शारीरिक भावभंगिमाओं, सन सभा हुस्त सुद्ाओं का बटूमुखी लौर ब्यायक
प्रयोग है । इस स्थल पर हम साहित्यिक स्रोतों से ऐसी अनेक नुचनायें पाते है. जो इस प्रदू्तियों की की है, उनको
विवेचन भी यहाँ किया गया है ! बस्तुत्त: में दोनों अन्योन्याश्ित हैं |
“ललित बिस्तर में सिद्धाथे को धनुरविद्या का. अभ्यास करते, पण्टिका पर छित्वते, चीणा का प्यास
करते, शुकसारिका की बोली बीलने की कठा इत्यादि कलामों के ज्ञाम प्राप्त करने का उन्देख मै । इसी बम को
म्रंकन अजंता में १७वीं गुफा के एक चित्र में है । इससे स्पष्ट होता हैं कि तस्कालीन समाज में जो भीजें प्रचलित
थीं उनका अंकल चित्रकारों से थित्रों से किया है । इसी प्रकार पालि ्रत्थ “दिट्यावदान में लिखा है कि पका
दारकोष्ठक को छत में भवचक़ का. चित्र लिखा गया था । अजंता, गुफा १७ के बाहरों बरामदे की बायीं शिसि पर
सचमुच भवचक़ का अंकत है। कला ओर साहित्य दोनों समाज के दंग है । इन्हीं पुष्टियों से अनेक सरहित्यिक
उल्लेखों का तुर्मात्मक अध्ययन इस ग्रंथ में किया गया है, जिससे अनेक नवीन पहुलुगों पर प्रकाश पढ़ता है ।
रामामण, कालिदास, भवभूति आदि के ग्रंथों से वर्णित प्रकृति-चिचण भी अंत के जिचों से सिलते-
जुर्ते है। बाणभट्ट की “कादम्बरी” में कमलबन का वर्णन है को सिप्तनवासल सुफोा में बने कमरूघन सरोशर से
साम्य रखता हैँ। घरों में बोभा एवं समृद्धि के लिए बनाये गये सतावत्लरी प्रधान संसावकमार का वर्णम आता है
जिसके अनेक प्रकार के लला-वितान, दालभंजिका, दोहद आदि के दुश्य अजता के भितिचितों, साँची, भरहूत भादि
के तोरण, वेदिकाओ, स्तंभों पर बनाये गये हैं। इसी प्रकार बसदेवता तथा निधियों को वर्णन काशिदास में
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