कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | Karttikeyanupreksa
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
604
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थ्- श्रीमदू राजजन्द्र - जप
ने उससे कहा-माते, सोच समझकर भाव कहना । आर बोला-जो मैं कह रहा हूँ, वहीं बाजार भाव है, आप
माल खरीद करें । श्रीमदूजी ने माल ले लिया तथा उसको एक तरफ रख दिया । वे मनमें जानते थे कि इसमें
इसको नुकसान है, और हमें फायदा । परन्तु वे किसीकी भूल का लाभ नहीं लेना चाहते थे । आरब घर पहुँचा,
बढ़े भाईसे सौदाकी बात की । बह घबराकर बोला तूने यह क्या किया । इसमें तो अपने को बहुत नुकसान
है। अब कया था । आरब श्रीमदूजीके पास आया ओर सौदा रद करनेकी कहा । व्यापारी नियमानुसार सौदा
पक्का हो चुका था, आरब वापिस ठेनेका अधिकारी नहीं था, फिर मी श्रीमद्जीने सौदा रद करके उसके मोती
उसे वापस दे दिए । श्रीमद्जीको इस सौदासे हजारोंका फायदा था; तोमी उन्होंने उसकी अन्तरात्माकों दुग्वित
करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए । कितनी निःस्पृहता, लोभबृत्तिका अभाव । आजके व्यापारियोंमें
जो सत्यता आ जाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य समाज सुखपूर्वक
जीवन यापन कर सके ।
श्रीमद्जी की दृष्टि विशाल थी । आज मिन्न मिन्न सप्रदायवाले उनके वचनोंका रुचि सहित आदर
पूर्वक अभ्यास करते हुए. देखे जाते हैं । उन्हें वाडावन्दी पसन्द नहीं थे। वे कहा करते थे कुगुरुओंने मनुष्योंकी
मनुष्यता दूठ ली है, विपरोत मार्गमे रुचि उत्पन्न करा दी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा वे अपनी मान्यताकों
ही समझानेका विशेष प्रयलर करते है । सद्भाग्यसे ही जीवको सद्गझका योग मिलता है, पहचानना कठिन है
और उसकी आज्ञानुसार प्रवर्तन तो अत्यन्त कठिन है ।
उन्होंने ध्मेकों स्वभावकी सिद्धि करने वाला कहा है, धर्मीम जो मिन्नता देखी जाती है, उसका
कारण दृष्टिकी मिल्नता बतलाया है । इसीं बात को वे स्वयं दोहोंमें प्रगट करते हैं ।
मिन्न मिन्न मत देखिए, मेद हृष्टि नो यह । एक तत्त्वना मूल्मां, व्याप्या मानों तेह ॥
तेह तत्वरूप बुश्ननो, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥
श्रीमदूजीने इस युगको एक अलैकिकदष्टि प्रदान की है वे रूढि या अन्घश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे,
उन्होंने आइम्बरों में धर्म नहीं माना था । मुमुझ्ुओं को भी मतमतान्तर, कदाग्रह और राग देष आदिसे दूर
रहनेका उपदेश करते थे । वीतरागताकी ओर ही उनका ध्यान था ।
पेढ़ीसे अवकाश लेकर वे असुक समय ग्व॑भात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो और ईवरके पर्वतमें
एकान्त बास किया करते थे। मुमुक्षु ओंको आत्म-कल्याणका सख्या मार्ग बताते थे ।
इनके एक एक पत्रमे कोई आपूर्व रहस्य मरा हुआ है । उन पत्नोंका मर्म समझनेके लिए सन्ततमागम
की विशेष आवदयकता अपेक्षित है। ज्यों ज्यों इनके लेखोॉंका शान्त और एकाग्र चित्तसे मनन किया जाता है,
त्यों त्यों आत्मा क्षण भरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । “ श्रीमदू राजचन्द्र * प्रन्थके फत्रोंमें
ही इनका आन्तरिक जीवन अंकित है ।
श्रीमदूजीकी भारतमें अच्छी प्रसिद्धि हुई । मुमुझुओने उन्हें अपना आदी माना । बम्बई रहकर
भी वे पत्रोंद्वारा उनकी डांकाव्मों का समाधान करते रहते थे ।
प्रातस्मरणीय श्रीलघुराज स्वामी इनके शिष्योंमें मुख्य थे । श्रीमदूजीद्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञानका
संसारमें प्रचार हो, तथा अनादिकालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोंको पक्षपात रहित मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो, इस
उद्देशको लक्ष्यमें रग्वकर, स्वामीजीके उपदेशसे श्रीमदूजीके उपासकोंने गुजरातमें अगास स्टेशनके पास
* श्रीमदू राजचन्द्र आश्रम ' की स्थापना की, जो आज मी उन्हींकी आशानुसार चल रहा है | इसके सिवाय समात
नरोडा, धामण, आहोर, भादरण, बबाणिया, काविठा, नार, सीमरडा आदि स्थलॉमें इनके नामसे आश्रम तथा
मन्दिर स्थापित हुए हैं । श्रीमद् राजवन्द्र आश्रम, आगास, के अनुसार ही उनमें प्रबनति है । अर्थात् श्रीमदूजीकी
मक्ति और तत्वशानकी प्रधानता है ।
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