पद्य - प्रभा | Padya - Parbha

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Padya - Parbha by हरिशंकर शर्मा - Harishankar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूरदास श्र कद वद्द ताल कहां बह सोभा देखत थूरि उड़े हैं। माइ दंघु अर कुटुम कबीला सुमिरि सुमिरि पछ्चिते हैं ॥ बिन गोपाल कोउ नदिं 'अपनो जस अपजस रदि जे हैं । जो 'सूरज' इुलेभ देवन को सतसंगवि में पे हैं ॥ ६॥ ( चिलावल ) ऊधो मन माने की बात । * दाख छोद्दारा छाँढ़ि अस्त फल विपकीरा विष स्वात। जो चकोर को देइ कपूर कोइ तजि झंगार अघात | मघुप करत घर कोरे काठ में बेंघत कमल के पाव ॥ ज्यों पतंग दित जानि ापनों दीपक सों लपिटात 1 'सूरदास' जा कौ मन जासों सोई तवाहि सुद्दात ॥ १० ॥ ( सैरवी ) कहाँ लो कह्टिये जज की घात । [सुन स्थाम हुम विन उन लोगनि जैसे दिवस. बिहात ॥ 'गोपी सवाल गाइ ,गोसुत वे मलिन -बदन कस ग्रात । परम दीन जनु सिसिर हिसीदत 'अंबुजगन बिन पात ॥ [जो कहूँ 'आावत देखि दूरतें सब पूँछति झुसलात ॥ 'लन न देत प्रेम थातुर उर कर. 'चरनस लपटात ॥ पिक चातक बन बसन न पावदि, बायस बघलिहिं न खाद । *. सूरस्याम संदेसन के डर, पथिक न उद्दि मग जात ॥१३॥




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