तत्वर्थ सूत्र | Tatwarth Sutra
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
670
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं. सुखलाल संघवी - Pt. Sukhlal Sanghvi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १३ 3
थम निश्चित की हुई विशाल योजना दूर हटा दी श्र उतना'
भार कम किया, पर इस कार्य का संकलम चेसा का वैसा था।
इसलिए तबीयत के कारण जग्र मैं विश्नान्ति लेने के लिए भावनगर
के पास के चालुकड़ गाँव में गया तब पीछे तत्त्वार्थ का कार्य हाथ
में लिया ओर उसकी विशाल योजना को संक्षिस कर मध्यममार्ग
का झवचलम्बन किया 1 इस विश्नान्ति के समय भिन्न भिन्न जगहों
में रद कर लिखा । इस समय लिखा तो कम गया पर उसकी एक
रुपरेखा ( पद्धति ) मन में निश्चित हो गई श्रौर कमी अकेले भी
लिख सकने का विश्वास उलन्न हुदा ।
में उस समय गुजयत में ही रदता श्रीर लिखता था । प्रथम
निश्चित की हुई पद्धति मी संकुचित करनी पड़ी थी; फिर भी पूर्व
संर्कारों का एक साथ कमी विनाश नहीं होता, इस मानस-शाल्र -
के नियम से में भी बद्ध था । इसलिए श्रागरा में लिखने के लिए.
सोची गई श्ौर काम में लाई गई हिन्दी भाषा का संह्कार मेरे
मन में कायम था । इसलिये मेने उसी भाषा में लिखने की शुरुध्रात
की थी। दो श्रव्याय दिन्दी भाषा में लिखे गए । इतने में ही
चीच में बन्द पढ़े हुए सन्मति के काम का चक्र पुनः प्रारम्भ इुश्ा
श्र इसके वेग से तत्तार्थ के काये को वहीं छोड़ना पड़ा ।
स्थूल रूप से काम चलाने की कोई झाशा नहीं थी, पर मन तो
श्रधिकाधिक दी कार्य कर रहा था । उसका थोड़ा बहुत मूत रूप-
पीछे दो वर्ष बाद श्रवकाश के दिनों में कलकत्ते में सिद्ध हुआ
तर चार श्रध्याय तक पहुँचा । उसके वाद अनेक प्रकार के
मानसिक श्रौर शारीरिक दवाव बढ़ते दी गए, इसलिये तत्त्वार्थ को
दाथ में लेना कठिन दो गया श्र ऐसे के ऐसे तीन वर्ष दूसरे
कामों में घीते । ई० स० १६२७ के श्रीष्मावकाश में लींमड़ी रवाना
हुमा तब फिर तत्त्वार्थ का काम दाथ में झाया श्रौर थोड़ा श्रागे
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