जम्बूद्दीवपण्णत्तिसुत्तं | Jambuddivapannattisuttam

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Book Image : जम्बूद्दीवपण्णत्तिसुत्तं  - Jambuddivapannattisuttam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना जस्बूच्वीपप्रज्ञदिंत 1 एक समपिक्षात्समक अध्ययन भारतीय दर्शन में जैनदशन का एक विशिष्ट और मौलिक स्थान है। इस दर्शन में श्रात्मा, परमात्मा, जीव-जगत्‌, वन्ध-मुक्ति, लोक-परलोक प्रभूति विषयों पर बहुत गहराई से चिन्तन हुआ है। विषय की तलछट तक पहुँच कर जो तथ्य उजागर किये गए हैं, वे आधुनिक युग में भी मानव के लिये पथप्रदर्शक हैं । पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भौतिक जगत्‌ में नित्य नये भ्रनुसन्धान कर विश्व को चमत्कृत किया है। साथ ही जन-जन के अन्तर्मानस में भय का सब्चार भी किया है । भले ही विनाश की दिशा में भारतीय चिन्तकों का चिन्तन पाश्चात्य चिन्तकों की प्रतिस्पर्द्धा में पीछे रहा हो पर जीवननिर्माणकारी तथ्यों की श्रन्वेषणा में उनका चिन्तन बहुत आगे है । जैनदर्शन के पुरस्कर्ता तीर्थंकर रहे हैं । उन्होंने उग्र साधना कर कर्म-मल को नष्ट किया, राग- देष से मुक्त बने, केवलज्ञान-केवलदर्शन के दिव्य श्रालोक से उन्तका जीवन जगमगाने लगा । तब उन्होंने देखा कि जन-जीवत दुःख से आक्तान्त है, भय की विभीषिका से संत्रस्त है, श्रत: जन-जन के कल्याण के लिये पावन प्रवचन प्रदान किया । उस पावन प्रवचन का शाब्दिक दृष्टि से संकलन उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने किया अर फिर उसको झाधारभूत मानकर स्थविरों ने भी संकलन किया । वह संकलन जैन पारिभाषिक शब्दावली में आगम के रूप में विश्रुत है । श्रागम जैनविद्या का झक्षय कोष है । झागम की प्राचीन संज्ञा 'श्रुत' भी रही है । प्राकृतभाषा में श्रुत को “सुत्त' कहा है। सूर्घन्य मनीषियों ने 'सुत्त' शब्द के तीन अथं किये हैं-- सुत्त--सुप्त भ्रर्थात्‌ सोया हुमा । सुत्त--सुत्र श्रेथात्‌ डोरा या परस्पर भ्रनुवन्घक । सुत्त--श्रुत अर्थात्‌ सुना हुआ । हम लाक्षणिक दृष्टि से चिन्तन करें तो प्रथम और द्वितीय श्रथं॑ श्रुत के विषय में पूर्ण रूप से घटित होते हैं, पर तृतीय अर्थ तो अमिधा से ही स्पष्ट है, सहज बुद्धिगम्य है । हम पूर्वे ही बता चुके हैं कि श्रुतज्ञान रूपी महागंगा का निर्मल प्रवाह तीथँकरों की विमल-वाणी के रूप में प्रवाहित हुभा श्रौर गणघर व स्थविरों ने सूत्रबद्ध कर उस प्रवाह को स्थिरत्व प्रदान किया । इस महासत्य को वैदिक दृष्टि से कहना चाहें तो इस रूप में कह सकते हैं--परम कल्याणकारी तीर्थंकर रूपी शिव के जटा-जूट रूप ज्ञानकेन्द्र से श्रागम की विराट गंगा का प्रवाह प्रवाहित हुआ श्रौर गणघर रूपी भगीरथ ने उस श्रुत-गंगा को श्रनेक प्रवाहों में प्रवाहित किया । ' श्रुति, स्मृति श्रौर श्रुत इन शब्दों पर जब हम गहराई से अनुचिन्तन करते हैं तो ज्ञात होता है कि बतीत काल में ज्ञान का निर्मल प्रवाह गुरु और शिष्य की मौखिक ज्ञान-धारा के रूप में प्रवाहित था । लेखन- [१७]




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