तत्वदर्शन | Tatvadarshan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
370
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ९ |
करने के लिये दो जिनघमेंक्रा आश्रय प्रइण करते हैं । जिससे कि मिथ्यात्व
आदि का विभाव हो और निज स्वरुप की प्राप्ति दो जाय । अतः: उस
माच भादिंक का नादा करनेके लिये दो यदद काये किया गया है । किन्दु:
जो जिनधर्मी का आश्रय प्राप्त करके सी अपने मान आादिक को पुष्ट
करते हैं, वे अनन्त संसारी तथा जिनाज्ञा से वद्दिसुंख मिंथ्याइुष्टी हैं ।
उनका कत्याण होना अद्यन्त कठिन है। जिस प्रकार किसी रोगी को
भ्नत का पान कराने से उसे विषरूप मालूम होता है» तो फिर उस'
पुरुष को कोई औषधि नहीं छगती । इसी प्रकार इस संसार में जीव को
जिनधर्म-रुपी अस्त का पान भी; विपरूप मान; कषाय भादि के संयोग
से नष्ट होकर विपवत् ही मालूम होता है' । वद्दां उसका भा नहीं होता 1
इस कारण मान ,आादिका पोषण कदापि नहीं करना चाहिये ।
सावार्थ--अपना तथा अन्य जीवों का उद्धार करने के लिये ही-
तत्वद्दन नामक श्रथ के आधार पर उपदेश रूप में मेंने अपनी दाक्ति के
अनुसार विवेचन किया है; अतः भव्य जीव, इसका स्वाध्याय करके:
लाभ उठावें 1
, श्री उमास्व्रामी नामक आचार्य विरचिंत जो दशाध्यायरुप तत्वाथ
शास्त्र है उसकी देशमापामय वचनिका रूप सार को लेकर भागे में बिवे-
चन करूंगा । जददां पर धमतीर्थ का प्रवतन करानेवाले परम पूज्य देवाधि-
देव परमौंदारिक दारीर में तिष्ठते हैं. बेह्दां पर भगवान् के कण्ठ; आओष्ठ
जिह.वा गादिक ' भंगोपांग के दछन-चलन हुए बिना भव्य जीवों के पुण्य-
तथा वचनयोग के उदय से उत्पन्न हुई निरक्षरी दिव्य्वनि खिरती है
और उसी दिव्यष्वनि के द्वारा श्री मगवानू मद्दावीर सामी नेम. म
को प्रकाश करने के लिये सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूप तथा. आत्मतत्त्व को
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