यात्रास्वप्रोदय प्रथम भाग १ | Yatrasvaprodya Volume-i
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
354
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपकारी की सहायता । -
निराश पंक नास से विख्यात है अथात पापिष्ठ लेग जा अपना
उद्धार करने में असमर्थ हैं इस वात के साचने से उन के चित्त में
ला मय संदेह अर संशय उत्पन हैल्ते हैं वे सब मिलकर इसी
स्थान में आ सकत्र होते लें इसी हेतु से इस स्यान की मिट्टी
सेसी चिकनी ई कि पेर रखते हो लेएग फिसल पड़ते हैं और वे
डस कारण फायर हे जाते हैं । राजा को ते यह असिलाषा
नहीं दै वरन राजा कहो आज्ञा से उस के सेवक इस आशा से कि
अब भी यह स्थान फिसी रोति से सुघर जाय उननीस सो वर्ष
से परिश्रम करते कैं। इस में छितापदेश नाम अच्छी मिट्टी की
लाखें गाही डाली गईं जिस के। वे राजा के समस्त अधिकार
से लाये कं और ज्ञानवान लेगग कहते हैं कि जिन उत्तम २ दब्यं
से यह दलदल सुघर सके उन में से यह शदितापरटश सत्तिका सब
से उत्तम है ताभी यह स्यपन नहीं सुधरा वह आज ले निराश
पंक नाम से चिख्यात है । वे जा चाहें से करें पर यह स्थान
शेसाहो बना रहेगा । सत्य है कि महाराजा को आज्ञा से.इस
में लेगां के पेर रखने के लिये अनेक दूढ़ पाषाण गाड़े गये हैं
तथापि कालान्तर में पूर्वक ख्रसादि जंजाल की धारा जा इस
स्यान में आकर गिरती है उस से वे पत्थर ढंप जाते हैं और
जा पत्थर कुछ र दिखाइं भी देते हैं उन पर पेर रखने से मनुष्यों
के सिर घूम जाते और वे इस महापंक सें गिर पते हैं परन्तु
उस सकरे फाटक में प्रवेश करते हो उन के अच्छो सड़क सिलती
ै। ९ शमुरल १२ : २३। य्शयाह ३५ : ८।
फिर में स्वप्न में क्या देखता हूं कि वह्दी दुचित्ता अपने घर
पहुंचा श्र उस के पड़ेपसी लेशग उस पास आ उस के फिर आने
के वियय में उस से वात करने लगे। उन में से किसी ने ते
कहा तू ने अच्छे किया जे लाट आया । काइं बेलला-यह वही
वावला हे जा खीष्टियान के साथ प्राण देने गया था उस समय
यह भी उस के साथ बेपराय गया था । दूसरे ने उसे कायर
दताके उस की बड़ी निन््दा कर कहा अरे कहां ते तू उस के
साथ प्राण देने गया था कहां अब तू थाड़े दुःख प्ले घबराकर
फिर भाग आया जा में इस 'रोति से जाता ता कभी रखे अत्प
दुग्ख से फिरसर न .आता । उस की रेसी - ९ बातें सुन दुर्चचत्ता
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