जैन शोध और समीक्षा | Jain Shodh Aur Samiksha

Jain Shodh Aur Samiksha by प्रेमसागर जैन - Premsagar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. दोनों पक्ष गुलाब की सुगन्घि श्रौर सुन्दरता की भांति प्रभावंकारी हैं ।. रस. त प्रवण हैं । ँ :...' मंध्यकालीन हिन्दी साहित्य में श्रात्मचरितों की रचना श्रत्पादपिश्रल्प हुई, नहीं के 'वराबर । किन्तु, एक ऐसा ' आत्मचरिंत है, जिसकी सत्ता श्रौर साम्थ्य-भ्राज के समीक्षक विद्वान भी स्वींकार करते हैं । उसके रचयिता कवि बनारसीदास थे । नाम है श्रर्घकथानक .। श्रात्मचरितों के श्रधिकारी ज्ञाता श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने “श्रधंकथानक' को श्रादशं श्रात्मचरित माना है । इसका झ्रथे है कि आ्रात्मकंधी की कसौटी पर वह खरा है। उन्होंने: लिखा है *“्रपने को तटस्थं रख कर श्रपने सत्कर्मों तथा दुष्कर्मों पर दृष्टि डालना, उनको विवेक की तराज पर वावन तोले पाव 'रत्ती तौलना; सचमुच एक महान कला- पुर्ण कार्य है । श्रघंकथाोनक में यह गुण है ।” डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी इसका “प्रधेकथा' नाम से सम्पादन किया था श्रौर “साहित्य परिषद, प्रयागविश्व- विद्यालय. से उसका प्रकाशन भी हुभ्रा था । उनकी मान्यता है, “कभी-कभी यह देखा जाता है कि श्रात्मकथा लिखने वांले श्रपने चंरित्र के कालिमा पूर्ण भ्रंशों पर एक श्रावरण-सा डाल देते हैं--यदि उन्हें संधा वहिष्कृत नहीं करते--किन्त यह दोष प्रस्तुत लेखक में विलकुल नहीं है ।*” पं० नाथुराम प्रेमी का कथन है “इसमें कवि ने श्रपने गुणों के साथ-साथ दोषों का भी उदघाटन किया है, शौर सर्वेत्र ही 'सचाई. से काम लिया हैं ।5” इस सब से सिद्ध है कि “अ्रघेंकथानक : सध्यकाल की एक सशक्त कृति थी । “खड़ी बोली की पुट' वाला यह श्त्मचरितत शअ्रत्यधघिक 'आरासान श्रौर रुचिकारक है । न-जाने क्यों कॉलिजों के पाठंयक्रम में अभी तक; इसको स्थान नहीं मिला है ? :. . . .मध्यकालीन हिन्दी मुक्तक पद काव्य क्षमतावांन हैं। विविधराग- . रागिनियों से समन्वित, वाद्य यन्त्रों पर खरा श्ौर श्रुतमधघुर । भाव की गहराइयों . क़ो.लिये हुए । सुरदास के.पद काव्य से किसी प्रकार कम नहीं । - 'भगवदुभक्ति' के क्षेत्र में सुरदास 'वात्सल्यरस के एकमात्र कंवि माने जाते हूं । तुलसी ने भी वालक राम पर लिखां, किन्तु वह: महाकाव्य के कथानक के १... हिन्दी का - प्रथम - आत्मचरिंत',' बनारसीदास चतुर्वेदी “लिखित, - झनेकांत, वर्ष “६; ' किरण १, पृ० २१ । ः ४ २. ्र्घकथा, डॉ० माताप्रसाद गुप्त :सम्पादित, प्रयाग, भूमिका, -पृ० १४ । ३.. श्रघेंकथानक, भूमिका, वम्बई, पृ० २२।




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