पथ - विपथ | Path Vipath

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Path Vipath by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्पृ सती तो जाते हैं । देहात के शान्त वातावरण में ये शहरी न लाने किधर से घुसकर तूफान का समा वाँघ देते हैं | रघुनाभ जी इन्हें रोकें !” पितानी के एक-एक शब्द से लाचारी श्रौर कराद प्रकट होती थी । मैंने चाहा कि उन से कुछ श्रौर पूछूँ, किन्ठ खोजने पर एक भी ऐसा प्रश्न न मिला जिसे रख सदूर । पितानी एक दिस ठहर कर जब जाने लगे तो चलते समय उन्होंने कददा, देखो ! यहाँ भी तुम बच कर ही रहना | में शहरी जीवन से घिना उठा हूँ। थे बड़े-बड़े वालॉंवाले जो चाय की दुकान श्र छिनेमा को श्रावाद किये रहते हैं, प्लेंग के चूठे हैं श्राप तो मरते ही हैं साथ दी जिस घर में मरते हैं, उसे भी ले बीतते हैं। परमात्मा ने इन्हें इसी निमित संसार में मेजा है |”? वे चले गये श्रौर बनमाली ने श्राकर फिर मेरे दिमाग का कचूमर निकालना श्ारम्भ कर दिया--“देखो ! कालेज का वातावरण भी ' विपाक्त हो गया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि हम सब बिना, पतवारः की नाव पर चढ़े हुए हूं | झ्रे ! तुम देखते नहीं, ये जो नये छोकरे द्राये हैं पलले सिरे के' ***+५” मैं व्यग्र होकर बोला-- “ठुमने सुक्ते पागल बना देने की कसम तो नहीं खाई है। में ठुम्दारी इन बातों को नहीं समभता । अच्छा दो कि ऐसी श्रनगंल्र पहेली में तुम मेरे दिमाग को मत उलभाश्यों 1”? विस्मय-विस्फारित आँखों से इस तरह बनमाली मेरी आर देखने लगा मानो बह ऑपनी दष्टि की चोटों से ही मेरी हड्डो-पसलियों को तोड़ डालना गाहता हो | एक दीप हुकार के साथ वह विदा हो गया और मैं ,मीं तरह-तरह की चिन्ताओओं के साथ मन-ही-मन उछल-कूद मचाता हुश्रा रह गया । वह दिन आरा गया जब कालेज बन्द हो गया और मुझे पिताजी के एक दूर के, अत्यन्त दूर के, रिश्तेदार के यहाँ डेरा करना 'पड़ा |




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