धर्मशास्त्रांक | Dharmashastrank

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अड्] * धर्मशास्त्र-सुभाषित-सुधानिधि * ७ हक फ के का फ के फ का के कफ का क के फ फ फ फ के भा फा भा फ भर के का फ भा फ पा भा के फ भी के फ कफ क का फी के क क पी फाक् के भी फ भा का फा का भा पा पा का के पी पा कफ फ पा हा के फ पा भा पा पा के का भा पा पा भा भर धरा भा भा भि ध थी ध अफक क कक के के के का का के के फ थी भा के के भी झ के भी के की धा के भा के के क के के के के के के के के भी की की के भी भी की के भी का भी भी का की की के के के के की कफ के कर की पा की फ का की का धर थी का धर कर पर धाम कर धर कै है हम ध है धर्मशास्त्र-सुभाषित-सुधानिधि जितेन्द्रिय: स्यात्‌ सतत वश्यात्माक्रोधन: शुचि: । प्रयुज्लीत सदा वाचं मधुरां हितभाषिणीम्‌॥ (औशनस, स्मृति ३। १५) आत्मकल्याणकामी व्यक्तिको चाहिये कि वह निरन्तर इन्द्रियोंको अपने वशमें रखकर जितेन्द्रिय रहे। मनके वशभमें न होकर आत्माके वशमें रहे। क्रोध न करे, सदा बाह्माभ्यन्तर-पवित्र रहे और सदा ऐसी वाणी बोले जो मधुर एवं हित करनेवाली हो अर्थात्‌ परुष (कठोर) एवं अकल्याणकारिणी वाणी न बोले। भूताभयप्रदानेन सर्वकामानवाप्ुयात्‌ । दीर्घमायुश्च लभते सुखी चैव तथा भवेत्‌ ॥ (संवर्त० ३) सभी प्राणियोंको अभय प्रदान करनेसे सभी कामनाओंकी प्राप्ति हो जाती है, दीर्घ आयु प्राप्त होती है और परम सुख प्राप्त होता है। यं त्वार्या: क्रियमाणं प्रशंसन्ति स धर्मों यं गहन्ते सोडधर्म: । (आप० धर्मसूत्र ७। ७) सत्पुरुष जिस आचारका स्वयं पालन करते हुए प्रशंसा करते हैं, उसका अनुमोदन करनेका परामर्श देते हैं, वह धर्म है और जिस आचारकी निन्‍दा करते हैं तथा स्वयं भी उसका आचरण नहीं करते, वह अधर्म है। हष्टो दर्पति दूो धर्ममतिक्रामति धर्मातिक्रमे खलु पुनर्नरक: । (आप० धर्म० ४। ४) अर्थात्‌ किसी भी कार्यके सिद्ध हो जानेपर हर्षातिरिकसे प्रफुल्लित नहीं होना चाहिये, क्योंकि हर्षोद्रेकमें दर्प या अहंकारका प्रवेश हो जाता है और इससे पूज्य-अपूज्य तथा कार्य-अकार्यका ठीक निर्णय नहीं हो पाता, इस कारण उसे प्रमाद हो जाता है। ऐसे प्रमत्त एवं दृप्त व्यक्तिके द्वारा धर्मका अतिक्रमण हो जाता है, जिससे इस लोकमें तो पतन हो ही जाता है, परलोकमें भी नरककी प्राप्ति होती है, अतः नित्य समत्व-योगकी स्थितिमें रहना चाहिये। जय: पुरुषस्यातियुरवो भवन्ति। माता पिता आचार्यश्र। तेषां नित्यमेव शुश्रूघुणा भवितव्यम्‌। यत्‌ ते ब्रूयुस्तत्‌ कुर्यात्‌। तेषां प्रियहितमाचरेत्‌। न तैरननुज्ञात: किस्तिदपि कुर्यात्‌। (अ० ३२१) माता-पिता और आचार्य-ये तीन पुरुषके अतिगुरु कहलाते हैं। इसलिये नित्य उनकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये। जो वे कहें, वही करना चाहिये। सर्वदा उनका प्रिय और हितकारी कार्य करना चाहिये। बिना उनकी आज्ञाके कुछ भी नहीं करना चाहिये। गवां हि तीर्थे वसतीह गड्भा पुष्टिस्तथा सा रजसि प्रवृद्धा। लक्ष्मी: करीषे प्रणतौ च धर्म- स्तासां प्रणामं सततं च कुर्यात्‌॥ (विष्णुस्पृति अ० २३) गोमूत्रमें गज़ाजीका वास है, इसी प्रकार गोधूलिमें अभ्युदयका निवास तथा गोमयमें लक्ष्मीका निवास है और उनके प्रणाम करनेमें सर्वोपरि धर्मका पालन हो जाता है, अत: उन्हें निरन्तर प्रणाम करते रहना चाहिये। मातृवत्‌ परदारांश्व॒ परद्रव्याणि _ लोष्टबत्‌। आत्मवत्‌ सर्वभूतानि य: पश्यति स पश्यति ॥ (आप स्मृति १०1 ११) परायी स्त्रीको माताके समान, परद्रव्यको मिट्टीके ढेलेके समान और सभी प्राणियोंको अपने ही समान जो व्यक्ति देखता है, समझता है, वही वास्तवमें सच्चा आत्मद्रष्टा है। सतीव प्रियभर्तारं जननीव स्तनन्धयम्‌। आचार्य शिष्यवन्मित्र॑ मित्रवत्‌ लालयेद्धरिम्‌॥। स्वामित्वेन सुदत्त्तेन युरुत्वेन च सर्वदा। पितृत्वेन समाभाव्यो मातृभावेन माधव: ॥ (शाण्डिल्य० '४। ३५-३६) जैसे पतित्रता स्त्री अपने प्रियतम पतिकी सर्वतोभावेन सेवा करती है, जैसे माता अपने लाडले दुधमुँहे बच्चेका पालन करती है, जैसे सत्‌-शिष्य अपने आचार्यके प्रति श्रद्धा एवं आदरभाव रखता है और जैसे एक अच्छा मित्र अपने अच्छे मित्रका सब प्रकार खयाल रखता है, उसी




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