कल्याण [वर्ष 6७] | Kalyan [Year 67]

Kalyan [Year 67] [1993]  by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अड्ड 1 + ते झंकरें झरणदे शारणं ब्रजामि + प्‌ हक शहकफक कक क कक कक फ ऊक कक कक के काफी कफ जज के कफ कक क जा कफ कक ऊ कक कक क कक डक ऊ का क ऊ ० का ऊतक खाक का कक का कड़क ऊ कक फू कर की काका क कफ फ़ का कशल स्वयंप्रकाशस्वरूप इस महान्‌ पुरुष परमेश्वर को मैं जाः.ता हूँ उसको जानकर ही मनुष्य मृत्युको उल्लब्रन कर जाता है परमपदकी श्राप्तिक लिये दूसरा मार्ग नहीं है। श्वेताश्वतर-उपनिपद्‌ु नाकीन्टडनकन श्रीदिवघात स्परणस्तोत्रम ब्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेझं गक्ाघरें वृषभवाहनमम्बिकेशम्‌ । खट्टाज्न्ूलवरदाभयहस्तमीश सेंसाररोगहरमौषधघमद्धितीयमू ॥ १ ॥ जो सॉसार्कि भयको हरनेवाले और देवताओंके स्वामी हैं जो गद्ठाजीको धारण करते हैं जिनका वृषभ वाहन है जो अभ्बिकाके ईश हैं तथा जिनके हाथमें खट्टा्ण त्रिशूल और चरद तथा अभयमुद्रा है उन संसार-रोगको हरनेके निमित्त शद्दितीय औषधरूप ईदा महादेवजी का मैं प्रातःसमयमें स्मरण करता हूँ ॥ १॥ ब्रातर्नमामि गिरिशं गिरिजार्थदेहे सर्मस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम । विश्वेश्वर विजितविश्वमनोधभिरामं संसारयोगहरमौषधमद्ितीयम... ॥ २॥ भगवती पार्वती जिनका आधा अड्ड हैं जो संसारकी सृष्टि स्थिति और प्रलयके कारण हैं आदिदेव हैं विश्वनाथ हैं विश्व-विजयी और मनोहर हैं सांसारिक रोगको नष्ट करनेके लिये अद्वितीय औषधरूप उन गिरीश शिव को मैं प्रातः- काल नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥ ्ातर्भजामि.. शिवमेकमनन्तमाद्यं चेदान्तवेद्यमनघं पुरुष महान्तम्‌ नामादिभेद्रहित॑. पडभावशून्य संसाररोगहरमौपघमद्धितीयम्‌ ॥। ३ ॥ जो अन्तसे रहित आदिंदेव हैं वेदान्तसे जानने योग्य पापरहित एवं महान्‌ पुरुष हैं तथा जो नाम आदि भेदॉसे रहित छः अभावोसे झून्य संसाररोगको हरनेके निमित्त अद्वितीय औपध हैं उन एक शिवजीको मैं प्रातःकाल भजता हूँ ॥ द ॥ ब्रात समुत्थाय शिवं विचिन्त्य इलोकन्रय॑ येश्नुदिन॑ पठन्ति । ते. दुःखजाते. बहुजन्पसंचिते हित्वा पर्दे यान्ति तदेव दाम्मो ॥ ४ ॥ जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर शिंवका ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों इलोकॉका पाठ करते हैं वे लोग अनेक जन्मेंकि संचित दुःखसमूहसे मुक्त होकर शिवजीके उसी कल्याणमय पदकों पाते हैं ॥ ४ ॥ नन्द्शकनना ते शंकर शरणदे शररणं ब्रजामि कृत्स्नस्य योडस्य जगतः सचराचरस्य कर्ता कृतस्प च तथा सुखदुःखहेतु । संहारहेतुरपि.... यः.... पुमरन्तकाले ते शंकर शरणदे शरण ब्रजामि ॥ जो चराचर प्राणियोंसहित इस सम्पूर्ण जगतकों उत्पन्न करनेवाले हैं उत्पन्न हुए जगत्‌के सुख-दुःखमे एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके संहारमें भी कारण बनते हैं उन शरणदाता भगवान्‌ श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ । ये. योगिनो. दिगतमोहतमोरजस्का . भक्टैकतानमनसो विनिवृत्तकामा । ध्यांयत्ति. निश्चलथियोउमितदिव्यभावे ते शंकरें शरणदे शरण ब्जामि ॥| जिनके हृदयसे मोह तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये है भक्तिके प्रभावसे जिनका चित्त भगवान्‌के ध्यानमें लीन हो रहा है जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं और जिनकी युद्धि स्थिर हो गयी है ऐसे योगी पुरुष अपरिमिय दिव्यमावसे सम्पन्न जिन भगवान्‌ शिवका निरन्तर ध्यान करते रहते हैं उन शरणदाता भगवान्‌ श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ.। यश्चेन्दुखण्डपमल विलसन्मयूखें यद्धवा संदा प्रियतमां शिरसा विभर्तिं । यश्चार्थदेहमददाद्‌ शिरिराजपुत्यै ते॑ शंकर शरण शरण




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