समयसार प्रवचन [खण्ड २] | Samayasar Pravchan [Vol. 2]

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Samayasara Pravchan [Vol. 2] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवाजीवाधिकार : गाथा-१३ [ हे तथा इन्द्ियों से चौर देव, गुरु, शात्र आादि संयोगी परवरतु से आत्मस्वसाव प्रगट होता है वह जीव-अजीव को एक मानता है। उसे असंवोगी ' स्वाधीन आत्मस्रूप की श्रद्धा नहीं है । जेसे सिद्ध भगवान देहादि संयोग से रहित अनेत युर्णों से अपने पूरा स्वभावरूप हैं वैसे ही प्रत्येक ज़ीव सदा परमार्थ से अनेतयगुणों से परिपूर्ण है, स्वतंत्र है । एकेन्द्रि में अथवा निगोददशा में भी स्वभाव से तो पूर्ण प्रभु ही है में झंतरंग के अनन्तयुणों से परिपूर्ण हूँ, असंयोगी हूँ, अविनाशी हूँ, और परसे मिनन हूँ इसप्रकार स्वभाव को भूलकर जो यह मानता दूसर से संतुष्ट होऊ, दूसरे को संतुष्ट करूं. और किसी की से लाभ हो जाये तया जो इसप्रकार दूसरों से गुण-लाभ मानता हैं उसे यह खबर ही नहीं है कि स्वतंत्र आत्मा क्या है । घ्म की प्रारंभिक इकाई ( सम्पकूदशेन ) क्या है । जो. यह मानता हे कि पुण्य-पाप के विकारी भाव अधवा मन, वाणी या देह की सहायता से निज को गुण-लाम होता हैं. वह घनित्य संयोग में शरण मानता है । कसी का आधार मानने का अर्थ यह है कि अपने में निज की कोई शक्ति नहीं है यह विपरीत मान्यता ही अनेत-संसार में परिभ्रमण करने का वीज है । स्वतंत्र भू 1 नए १८ +2 १1110) पं [00 ्प लैसे पूरा गुण सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा में है बैसे ही पूरा गुण मुकमें भी हैं ऐसी श्रद्दा के वल से ,मलिनता का नाश और निर्मलता की उप्पति होती है । इसके अतिरिक्त यदि कोई दूसरा उपाय बताये तो वह निरा पाखंड है, संसार में परिप्रमण करने का उपाय है । निमिल स्पमाव की प्रतीति करने के बाद सम्यकज्ञान के द्वारा वर्तमान विकारो अवस्था ओर संयेग का निमित्त इत्यादि जसा है वसा ही जानता है, किन्तु यदि उसके कावृत्व को या स्वरामित्र को माने झथवा शुभराग को सहायक माने तो वह ज्ञान सच्चाज्ञान नहीं है। में शुद्धचय से एकरूप पूरा प्रुव॒ स्वभाव हूँ ऐसी प्रतीति किये विना सम्यकू-




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