महात्मा गांधी एवं विनोबा के शैक्षिक विचारों का नवीन शिक्षा नीति के परिप्रेक्ष्य में आलोचनात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन | Mahatama Gandhi Yom Binobha Kay Shakshayak Vicharon Ka Navin Shiksha..........
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
72.78 MB
कुल पष्ठ :
351
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अतः संस्कार एवं सामाजिक चेतना का जागरण करने वाली शिक्षा
होनी चाहिये जिसके द्वारा विकसित शकक््तियाँ भलाई के रक्षण और बुराई का निवारण कर स्वस्थ्य और
मजबूत समाज निर्माण के काम आ सकें।
शिक्षा के द्वारा बालकों को इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, विज्ञान, नागरिक
शास्त्र आदि विषयों का ज्ञान कराया जाता है। उन विषयों का केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना ही स्वयं में
कोई उददेश्य नहीं हैं। उन विषयों का ज्ञान समाज की समस्याओं का समाधान कर उसकी उन्नति करना
हैं। विभिन्न विषयों की पाट्य वस्तु एवं शिक्षण प्रणाली भी इस उददेश्य की पूर्ति के अनुरूप होना चाहिये।
शिक्षा के माध्यम से छात्रों के अन्तत्करण में समाज की समस्याओं की.
अनुभूति जागुत करनी होगी। तभी वास्तविक सामाजिक चेतना का जागरण होगा। आज समाज में
अस्पर्शयता, जातिभेद, निर्धनता, निरक्षरता दहेज आदि समस्यायें विकराल रूप धारण किये हुये हैं। छात्रों
को इन समस्याओं का ज्ञान हों, समाज के पिछड़े और निर्धन बन्धुओं के प्रति आत्मीयता एवं एकात्मकता
की भावना जागुत हों तभी इन समस्याओं के निवारण के लिये युवा शक्ति जागृत होकर सक्रिय होगी।
** आज भारत के शिक्षित वर्ग के जीवन मूल्यों पर पश्चिम का यह
प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता हैं। जब तक अंग्रेज थे तब॑ तक तो हम स्वदेशी की भावना से अंग्रेजियत
को दूर रखने में ही गौरव समझते थे । किन्तु अब जब अंग्रेज चले गये हैं तब भी अंग्रेजियत पश्चिम
की प्रगति का द्योतक एवं माध्यम बनकर अनुकरण की वस्तु बन गई हैं। अंग्रेजियत के मोहवरण
को परित्याण करना ही हमारे लिये श्रेयस्कर होगा |”!
शिक्षा के द्वारा समाज में आत्मीयता एवं एकात्मता का भाव जागृत
किया जाना चाहिये तभी स्वस्थ और सबल समाज का निर्माण सम्भव हैं अन्यथा समाज के कमजोर
होने से व्यक्ति का कमजोर हॉकर नष्ट होना स्वाभाविक है।
** समाज का प्राण दुर्बल हो गया तो सब अंग दुर्बल और निस्तेज
हों जायेंगे। कुटंम्ब जाति श्रेणी पंचायत जनपद राज्य आदि सब संस्थायें राष्ट्र तथा मानव क अंगभूत
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हैं. । उनमें एकात्म भाव होना चाहिये ये. परस्पर पूरक हैं। परस्परवलम्बी है। इसलिये उनमें
परस्परनुकूलता की वृति उत्पन्न होनी चाहिये ।””*
1, एकात्म मावन दर्शन, राष्ट्रवाद की सही कल्पना, स्वदेशी की भावना सर्वव्यापी हो
- पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ 7
2. एकात्म मावन दर्शन, व्यष्टि समष्टि में समरसता, समाज और व्यक्ति में संघर्ष नहीं
- पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, पृष्ठ 41
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