जैन तत्व चिन्तन | Jain Tatv Chintan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
148
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ० | जैन तत्व चिन्तन-
विज्ञान का बहुत महत्वपूर्ण सिद्धात्त समझा जाता है श्रौर तुला यन्त्र द्वारा किसी भी
समथ उसकी सचाई की परीक्षा की जा सकती है |
पुरुष नित्य है श्र प्रकृति परिणामि-नित्य, इस म्रकार सांख्य भी नित्यानित्य-
त्ववाद खीकार करता है । नैयायिक श्रीर वेशेषिक परमाएु, आत्मा झादि को नित्य
मानते हैं तथा घट, पट आ्रादि को श्रनित्य । समूहामेक्षा से ये भी परिणामि-नित्यलवाद
को खीकार करते हैं किन जैन दर्शन की तरह' द्रव्य मात्र को परिणामि-नित्य नहीं
मानते । महर्षि पतज्लि, कुमारिल भट्ट, पार्थसार मिश्र आदि ने 'परिशामि-नित्यलवाद'
को एक स्पष्ट सिद्धान्त के रूप में खीकार नहीं किया, फिर भी उन्होंने इसका
प्रकारान्तर से पूर्ण समर्थन किया है। जेन-दर्शन के अनुसार जड या चेतन, प्रत्ेक
प्रदार्थ श्रयात्मक है--उपाद-व्यय-्रीव्ययुक्त”” है। इसी का नाम परिणामि-
नित्यत्व है ।
दब्य घृद हैं:
१: धर्माखिकाय ।
२: श्रघर्मासिकाय |
३४ श्राकाशास्िकाय |
४५ काल |
५४ पुदुगलाखिकाय ।
६ ४ जीवास्तिकाव |
भगवान ने कहा-“भीतम ! गलति-्सहायक द्रव्य को मैं धर्म कहता हूँ । स्थिति-
सहायक द्रव्य को मैं श्रघर्म कहता हूँ । आधार देने वाले द्रव्य को मैं आकाश कहता
हूँ । परिवर्तन के निमिततभूत द्रव्य को में काल कहता हूँ । स्पर्श, रस, गन्ष श्रौर रूपयुक्त
द्रव्य को मैं पुदुगल कहता हूँ । चेतनावान् द्रव्य को मैं जीव कहता हूँ।”
धर्म और अधर्म ग
जैन-साहित्य में जहां धर्म-अधर्म शब्द का प्रयोग शुभ-श्रशभ प्रदृत्तियों के श्रर्थ में
होता है, वहाँ दो खतन्त्र धरव्यों के सर्थ मे मी होता हैं. धर्मरतितत्त है; उधम
पृस्पतिल ! दार्शनिक जगत में जैन दर्शन के सिवाय किसी ने भी इनकी स्थिति
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