हिंदी साहित्य कोश भाग 1 | Hindi Sahitya Kosha Part

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Hindi Sahitya Kosha by धीरेन्द्र वर्मा - Deerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अत्यंतातिशयोक्ति-अदूभुत रस हि वि न हि हा यहाँ खग शब्दका मुख्याथ प्रसंग अतिद्ध होनेके कारण सर्वधा परित्यक्त है और मनका अर्थ देता है मनकी चंच- लता और अबोधता आादि व्यन्जित करना प्रयोजन है । २. सकल रोभोंकि हाथ पसार लूटता इघर लोभ गृददद्वार का द० पृ० ड०४ । इस उदाहरणमें समूचे वाक्यका अर्थ बाधित होनेके कारण परित्यक्त हो जाता है और लोसी व्यक्ति प्रत्येक प्रकारसे दूसरेकी सम्पत्तिका अपहरण करता है यह कक्ष्यार्थ ज्ञात होता है । लोभ के स्वरूपकों बोध कराना प्रयोजन हे । -एव० झां० झु० अर्व्यंतातिशयो क्ति-दे० अतिशयोक्ति सातवों मेद | अत्युक्ति-अतिशयोक्ति वर्गका अधौलंकार शौर्य और ओदाये आदिके अत्यन्त सिध्या वर्णनकों अत्युक्ति अलंकार कहते हैं अ०्म० पू० ४१४ । कुवलयानन्द के अनुसार जहाँ समृद्धिका अतिशय वर्णन होता है वहाँ उदात्त और जहं शौर्यादिका वर्णन होता है वहाँ अत्युक्ति अलंकार होता है । वस्तुतः इस अलंकारको उदात्त अथवा भतिशयोक्ति में अन्तर्भूत समझना चाहिए । काव्यप्रकाश के टीकाकार भट्ट वामनने ऐसा ही माना है । न तो मम्मटने काव्य प्रकाश में न विश्वनाथने साहित्यदपण में इस अलंकारका उल्लेख किया है। किन्तु हिन्दीके अनेक जसवन्तसिंह मतिराम भूषण दास तथा पश्शकर आदि आचार्योने अपने अन्थोंमें अप्पय दीक्षितके आधारपर इसको स्थान दिया है । मंतिरामकी परिभाषा है जो सुन्दरतादिकनकी अधिक झुठाई हदोय ल० ढ० ३८१ ।. बिहारीमें अत्युक्तिके सुन्दर उदाहरण हैं--भूपन भार सँभारिहे क्यों यह तन सुकुमार | सूप पाय न परत धर शोसा ही के भार । बि० र० । नायिकाके अंगोंकी झोभाका ही भार इतना अर्पिक है कि वह सीधी चल नहीं सकती फिर भला आशभूषणोंका भार वह कैसे सँभालेगी। यह सौन्दयेकी अत्युक्ति है । इसी प्रकार प्रेम औदाय विरह आदिकी अत्युक्ति होती है-- बाल बिलोचन बारिके बारिघ बढ़े अपार । जारे जो न वियोगकी बड़वानलकी झार ल० ल०् रेट । काव्यप्रकाशके व्याख्याकारका कहना है कि यह अलंकार उदात्त के अन्तर्गत है । सम्भवतः रेसी आलोचनासे अवगत अप्पय दीक्षितने बताया है कि जहॉपर सग्द्धिका अत्यधिक वर्णन होता है वहाँ उदात्त और जहाँ शुरता या उदारताका वहाँ अत्युक्ति होती है । उन्होंने अत्युक्तिको सम्बन्धातिशयोक्तिसे भिन्न बताया है । कारण अति- रायोक्तिका कथन कुछ सीमातक सम्भव हो सकता है पर अत्युक्तिका विषय सर्वधा असम्भव है कुवलयासन्द पृ० १७८ | -ज ० कि० ब० तथा घ० श्र० झा अदब-नियम । प्रत्येक वस्तुकी निर्दिष्ट सीमा रखना प्रज्ञा । लिट्रेचर अथवा वाडमये । अदवी-इस्‍्मी इखलाक़ी अर्थात्‌ नेतिक । अल-अदब--वह नैतिक प्रवृत्ति जो मनुष्य- को असभ्य व्यवहारसे रोकती हे । मुदिता अथवा मनदी प्रसन्नता । इस्मेअदब वह विद्या है जिसके द्वारा मनुष्य बोलचाल और लेखनकी चुटियोंसे बच सके । क्रि० अद्दब-- सभ्य बनाना अदब सिखलाना । यह रपष्ट है कि अपने मूलाथमें अदब वाइ मय अथवा सादित्यसे कहीं व्यापक कि शैटठ रनानकाकिदतटर बजवपगलनन गे बल ब्या.. कदर. पलक पे. कॉजिललिलपरकयनरलरिययलयभ कै सपिनदस नन्लयलन-नयन वस्तु है क्योकि उसमें मनुष्यकी लिपिवद्ध शासचेतना हू नहीं उसका लोकन्यवहार थी सम्मिलित है । परन्तु साहित्य संस्कारी जीव सका प्रमुख अंग होनेके नाते अदबका मुख्य प्रकरण बन गया और पश्चात उसका साम्यवाची मान। जाने लगा । इस सन्दर्भमें सभी प्रकारकी संस्कारों और भाव- प्रधान रचनाओकि लिए इस झाब्दका उपयोग होता है । फारसी और अरबीके साहित्यमें अन्तरंगका उतना महत्त्व नहीं है जितना बहिरंगका क्योकि ईरान और अरबमें साहित्यकार गढ़िया नहीं जड़िया है । अदब चाब्दको भीतर जो सांस्कारिकता और नियमबद्धता है वह इन देशोंके साहित्योंमें स्पष्ट रूपसे उभरी है। दे० साहित्य उपयोगी साहित्य काव्यकला ललित भाहित्य सरस साहित्य । नारा० भ० अद्भुत रस- विस्मयस्य सम्यक्ससद्धिरदूभुत्तः सर्वेन्द्रियाणा तार्स्थ्य वा । भातुदस रसतरंगिणी अथोत्‌ विसयकी सम्यक्‌ समृद्धि अथवा सम्पूर्ण इन्द्रि्योकी तटस्थता अद्भुत रस है। वहलेका अभिप्राय यह है कि जब किसी रचनामें विस्मय स्थायी भाव इस प्रकार पूर्णतया प्रस्फुट हो कि सम्पूर्ण इन्द्ियों उससे अभिभावित होकर निद्चे्ट बस जाएँ तब वहाँ अद्भुत रसकी निष्पत्ति होती है। दिन्दीके आचायें देवने अद्भुत रसका यह लक्षण किया है-- आहदचरज देखे सुने बिस्मे बाढृत । वित्त अदूभुतरस बिस्मय बढ़े अचल सचकित निमित्त भवानी विलास । भरतमुसिने वीररससे अद्भुत उत्पत्ति बतायी है तथा इसका वर्ण पीला एवं देवता श्रह्मा कहा है। विश्वनाथके अनुसार इसके देवता गन्घर्व हैं । विस्मयकी परिभाषा सरस्वतीकण्ठाभरण में दी गयी -विसयश्वित्त विस्तार पदार्थातिशयादिमिर दिसी अलौ- किक पदार्थके गोचरीकरणसे उत्पन्न चित्तका विस्तार विस्मय है । विद्वनाधने साहित्यदपंण में इस परिभाषाकों दुद्दरतें हुए विस्मयको चमत्कार का पर्याय बताया है-- चमत्कार- श्वित्तविस्ताररूपों विस्मयापरपर्यायर ३८३ बू० । अतणव चित्तकी वह चमत्कृत अवस्था जिसमें वह सामान्यकी परिधि- से बाददर उठकर विस्तारलाभ करता है विस्मय कहलायेगी वास्तवमें यह विसय था चमत्कार प्रत्येक गददरी अनुभूतिका आवश्यक अंग है और इसीलिए यह प्रत्येक रसकी प्रतीतिरमं वर्तमाँन रहता है। भानुदत्तने कहा है कि विस्मय सभी रसोंमें संचार करता है । विश्वनाथ रसास्वादके प्रकारकों समझाते हुए कहते हैं कि रसका प्राण लोकोत्तर चमत्कार है जो चित्तका विस्ताररूप विस्मय हो है? और इस प्रकार सर्वत्र सम्पूर्ण रसग्मिंत स्थानोंमें अद्भुत रस माना जाना चाहिये । इस सम्बन्धमें उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियाँ उद- घृत की हैं-- रसे सारदचमत्कारः सर्वश्राप्यलुभूयते । त्तत्चम- त्कारसारत्वे सबंत्राप्यद्भुतो रसः । तस्माददूभुत्तमेवाह्द कृत्ती नारायणोी रसभ्‌ । सा० द० रेः२ वृू० अर्थात सब रसॉंमें चमत्कार साररूपसे वर्तमान होता हे तथा चमत्कार विस्मय के साररूप स्थायी होनेसे सर्वत्र अद्भुत रस ही प्रतीत होता है । अतएव नारायण पण्डित केवल एक अद्भुत रस ही मानते है । मनोविज्ञानियोंने भी विस्यकों प्रधान भावोंमें गीत




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