सन्तों का भक्तियोग | Santo Ka Bhaktiyog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) श्री दिनेशचन्द्र सेन का कहना हे कि बज्ञाल के इतिहास से यदद बात अलग नहीं की जा सकती कि बोद्धघर्म का हास होते ही महायान मत से विकसित नाथपन्थ वैष्णवों में शामिल हो गए. । इसी प्रकार परकीया प्रेम को अपनी प्रेममूलक सहज-साधना का प्रधान उपाय समझने वाले आाउल-बाउल आदि अनेक सहलिया पन्‍्थ भी सोलहर्वीं शताब्दी मैं नित्यानन्द के वैष्णव झण्डे के नीचे एकत्र हुए थे। इन्हीं नित्यानन्द को मददाप्रु चैतन्य ने अपने सम्प्रदाय मैं आामात्रित किया था. और यहीं से गौड़ीय वैष्णव घर्म ने नवीन रूप घारण किया था । * बारहवीं से चोदहडवीं शताब्दी के बीच बड्ाल और उड़ीसा में प्रचलित 'घमाली नासक लोकगीत वैष्णव कवियों की प्रेम साघना का पता तो देते दी हैं, योगी जाति ते उनका गहरा सम्बन्ध था इसे मी व्यक्त करते हैं भर इस प्रकार यदद मानने का सड़ृत आधार देते हैं कि आगे चलकर विकसित होने वाढी सन्त परम्परा में स्वीकृत वैष्णव भक्ति उनकी वपनी दी परम्परागत सम्पत्ति है जिसमें नार्थों की विन्दुसाधना ने इन्द्रिय निग्रह को और रामानन्द्‌ ने रामनाम को प्रविष्ठ कराके उसे नया रूप दिया है। इन गीतों से यद्द भी रुपष्ट हो जाता है कि सोलहर्वीं राताब्दी में नित्यानन्द के साथ जो दाक्ति चैतन्य सम्प्रदाय में प्रविष्ट हुईं और उड़ीसा के धर्माचार्यों द्वारा चैतन्य और नागाजुन के मर्तों के समन्वय से एक विद्ञाढ वैष्णव-बौद्ध साहित्य निर्मित हुआ, यह कोई नई चीज नहीं थी । वस्तुतः उसके पीछे तीन-चार सौ वर्षों का इतिहास था । १५-दिमालय की तलहददी में बसे हुए रगपुर, दिनाजपुर आदि जिला में बारइवीं-तेरदवीं शताब्दी में प्रचलित उक्त घमाली गीतों के दो प्रकार निर्दिष्ट किए गए. हैं--एक को असल धघमाछी या कृष्ण घमाली कहते हैं भर दूसरे को शुक्ल घमाली । ये गीत घोर श्पज्ञारी हैं--यहाँ तक कि अत घमाली गीतों को, अत्यधिक अदढील होने के कारण गाँव के बाहर गाया जाता है । श्रीदीनेश- चन्द्र चेन ने बताया है कि ये कृष्णघमाढछी गान दी किसी समय बगाल के जनसाधारण की राघाकृष्ण की प्रेमकया सुनने की भूख मिटाते रहे हैं । प्राचीन राजवशी जाति तथा योगी जाति के लोग आज तक बंगाल के अनेक स्थानों पर यत्नपूर्वक इनकी रक्षा करते आए, हैं ।* कहते हैं प्रसिद्ध वैष्णव कवि चण्डीदास १-दे० वेंगाछी लेंग्वेज एण्ड लिटरेचर, श्री दीनेशचन्द्र सेन, प्ृ० ४०३, । २-बेंगादी लेंबेज एण्ड डिटेरेचर, पृ० ४०३ ।




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