दश कंधर | Dashakandhar

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Dashakandhar by शान्तिस्वरूप गौड़ - Shantiswaroop Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्ड 1 ब् ही उपस्थित होने पर युवावरता का क्रोध फिर झपना सामा पर पहुँच जॉत। था ओर उप दूसर का ऊछ अनिष्ट दते फिर देर नहा लगपी थी | दुर्बासा ऋषि की सी भयकरता तो उनके क्रोच में नहीं थी, परन्तु विध्न- रूप उपस्थित दो जाने वाले उस प्राणी को दुछ तो कष्ट जरूर दी होता था, यह निश्चय है । मगर स्वभाव से वह शान्ति-प्रिय ये । जोवन उनका बहुत दी सीधा-सादा था । ससार की ओर उनकी रुचि बिस्कुल भी न थी । झब वददू अकसर जन-रव से बहुत दूर, गहन वन में उपयुक्त स्थान देखकर, झपना योग साधते थे । फिर उन्हीं दिनो की बात है--एक बार महर्षि पुलत्स्य मद्दापव॑त मेर की तलेटी में श्ववस्थित तृणनिन्दु राजपि के श्राश्रम पर जा, इन्द्रियों का संयम कर, वैद्पाठ मे परायण हो, कठिन तपस्या में लीन थे--ऋषियों, पन्नगो शर राजर्षियों की झनेक कन्याएँ उनके सन्मुख विध्न-स्वरूप उपस्थित होने लगीं । जब तपस्या मे रत इस ऋषि को देखकर भी, उस वन-प्रदेश की रमणीयता, उसके सौन्दर्य पर विमुग्व हुई उन कन्याओओों ने झपनी बाल- खुलभ प्रकृति क कारण, वद्दीं क्रौीड़ा करना न. छोड़ा तो बह युवक तपस्वी भी इस विष्न को भ्घिक सदन न कर सका । तब तेज के पुज उस प्रजा- पतिनन्दन ने कोघ में भर कर कहा--'अब जो भी कन्या मेरे सम्मुख श्रायेगी, वद्द तत्काल गभवती हो जायेगी ।* शोर उसी क्षण ऋषि का वह श्राक्षम बिल्कुल निस्पन्द हो गया । न्रह्मशाप से डर कर सभी कन्याएं उस रथान से बहुत दूर दट गई' । हवा की मत्त लददरं लाख प्रयत्न करने पर भी अब कोकिल-कणिंठयों की उस ध्वनि को वहां न पहुंचा पाती थीँ।. उनके पायलों की रुनझुन किसी




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