रूंखा | Roonkha

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Roonkha by मुखड़ा बिज्जी - Mukhada Bijji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बात है? जिसे अपने पर पुख्ता विश्वास नहीं होता, वह भला दूसरों पर क्या विश्वास करेगा ? हिन्दी के उन आत्म-विमुग्ध लेखकों के विश्वास या अविश्वास की मुझे दरकार भी नही है। मुझे अपने पर विश्वास है और मेरे अगोचर पाठकों का मुझ पर अगाध विश्वास है--चाहे वे कितनी ही अल्प संख्या में क्यों न हों 1 गणना तो एक से ही प्रारंभ होती है, पर इसका अन्त... ! सो लिखित रूप में सबसे पहले मांगलिक शुरुआत की थी गोपाल भारद्वाज ने । निस्संकोच बताना चाहूंगा कि गोपाल भारद्वाज मेरा घनिष्ठ सित्र है--जोधपुर विश्व विद्यालय में समाज-शास्त्र का प्राध्यापक । नाम-मात्र का ही नहीं, सचमुच प्राध्यापक । अब भी उसे पढ़ाने की बजाय पढ़ने का ज्यादा शौक है। रुचि भी परिष्कृत है। आधुनिक सिनेमा, चालू संस्कृति, मनोरंजक पत्र-पत्रिकाओं तथा व्यावसायिक प्रकाशनों ने उसकी रुचि को शभ्रप्ट नहीं किया । 'दूजौ कबीर' कहानी पढ़ कर, उसने दो-चार पंक्तियों में ही ऐसी उत्फूल्ल प्रशंसा की कि मैं हतप्रभ रह गया । पहली वार अपने सृजन के प्रति मैं सचेत हुआ । उसे अपने जीवन से अलग करके देखने का सवंप्रथम यत्किचित्‌ अहसास हुआ | खुशी भी हुई । थोड़ा-बहुत प्रमोद भी हुआ । थोड़ा अविश्वास भी हुआ । कई बार उन पंक्तियों को वांचा । वास्तव में दुनिया जीने काबिल तो है ! उस सराहना में अपने सृजन की स्वतंत्र प्रतिच्छवि दिखलायी पड़ी । आज तुम्हें पहली बार वता रहा हूं कि 'दूजौ कवीर' के माध्यम से मैंने अपनी आत्म-यंत्रणा का मवाद ही बिखेरा है । इसे मेरी आत्म- कथा ही समझो । यों इस कहानी में वर्णित एक भी घटना का मेरे जीवन से दूर का भी संवंध नही है, पर मैंने अपने अध्ययन व सृजन के साथ आजीवन यही रिश्ता वरता है; और पत्थर की तरह सब-कुछ चुपचाप सहा है । आखिर घूम-फिर कर लेखक की रचनाएं उसका नियोजित स्वप्न ही तो हैं ! विद्या-भवन, उदयपुर में एक और प्राध्यापक है--वेददान सुधीर । काफी निकट का रिश्तेदार । मेरी कथाएं मौखिक रूप से सुना-सुना कर, उनकी व्याख्या करके उसने इतना प्रचार किया है कि क्या बताऊं तुम्हें? वाणी के शब्दों को तोलने का कोई यंत्र भी तो ईजाद नही हुआ । यदि उसके द्वारा उच्चरित शब्द ठोस, स्थूल रूप से एक जगह शामिल होते रहते तो अब तक छोटा-मोटा पहाड़-सा निर्मित हो जाता ! वह जब भी उदयपुर से गांव आता सिवाय मेरी कथाओं के दूसरी कुछ भी चर्चा नहीं करता । एक के वदले हजार मुंह भी होते तो वह मेरी प्रशंसा करते कभी नहीं अघाता । तभी तो महेन्द्र कात्तिकेय की भत्संता-मूलक समीक्षा पढ़ कर वह उबल पड़ा । किन्तु उसकी मौखिक प्रशंसा ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया । यह तो अपने मुंह से अपनी ही प्रशसा है। सच कहूं शिशिर, कि महेन्द्र कात्तिकेय की टिप्पणी भी मुझे अप्रत्याशित नहीं लगी ; क्योंकि राजस्थानी के अधिकांश लेखक व पाठक मेरी जी-भर कर निन्दा ही करते हैं । वे लेखक कौन हैं, कैसे हैं, क्या हैं, इसका हवाला देकर अपनी कलम का मुंह कलंकित नहीं करूंगा । हर भाषा की ऐसी विडम्वना रही है, इस में अनहोनी जैसी कोई वात नही । सृजन की वुलंदी के दौरान भी इस माजने के बंगाली लेखक, पाठक व संस्कृत के तथाकथित पंडितों ने रवि वावू की क्या कम भत्संना की है ? कम खिल्‍ली उड़ायी है ? इनके मुंह से प्रशंसा के वोल निकलें तो विज्जी उन्नीस




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