भारतीय अर्थ - व्यवस्था की समस्याएँ | Bharatiy Artha - Vyavastha Ki Samasyaen
श्रेणी : अर्थशास्त्र / Economics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
618
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)12 “भारतीय अपनव्यवत्था
को बिना उपयुक्त सुगतान किये अधिक से श्रधिक माल का उत्पादन कराया जाय |
इस प्रकार कारीगरों की स्पिठि कम्पनी के दासो की तरह थी । इस नोतिं का इतती
कठोरता से पाछन किया गया कि बहुत से वारीगर अपना पेंतुक व्यवसाय छोड कर
गावों में जाकर खेतों उरने लगे । हुन 1834-35 ई० से कम्पनी के गवुर जनुस्ठ
ने सपनों एक स्योरे से हिला था, “बसरय के इॉनिटास मे दुखी ब्नीय खिह्िका
अन्य कोई हृप्टान अब कोई हस्त वर दिल । भारती मु पी बरी के इक की मूरगि सूती बरनो के बनकरों की हड्डियों
इस प्रकार धीरे-धीरे भारतीय व्यापार सया उत्पादन-व्यवस्था पर कम्पनी का
नियन्मष और अधिकार बदता गया ! परन्तु 18वी शताब्दी के अन्त तथा 19वीं
बाताढ्शी के प्रारम्भ में जब इगरठंड की औद्योगिक शान्ति के परिणामस्वरूप वहा वस्त्र
उद्योग बड़े पंभाने पर स्थापित किया गया, तब से भारत को एक निर्यातक देश
(धफ़णांटर) वा हयात पर भायातद देश (100फ01167) बताने के प्रयरन किये जाते
छगे । इस दिशा में सबसे पहले मन 1813 ई० में चादर मंधिनियम के अन्तगेंत ईस्ट
इण्डिया कम्पनी का भारत से व्यापार परने का एकायिकार समाप्त कर दिया गया,
क्योकि थव इग्लेंड के उद्योगपति अपने उद्योगों का निर्तित माल भारत जेंसे उपनिवेश
में वेचकर ही विटिश औद्योगिक त्रान्ति को सफल बनाना चाहते थे । इसके लिए
दूमरा उपाय यह शिया गएा कि वहां को सरकार से स्थतन्त्र व्यापार की नीति अपना
कर उद्यीगपतियों को भारत को अधिक से अधिक निमित माठ तियाति करने की छूट
है दी तथा दूसरी तरफ तटकर (टंरिफो नीति द्वारा अपने देश के उद्योगों को सरक्षण
प्रदान करने के लिए भारतीय निमित वस्तुओं के भापात को कम कर दिया । परिशाम-
स्वरुप सन् 1814 ई० से सन् 1835 ई० तन भारत में ब्रिटिश नििते सूपी चसतो के
भायात में 20 युने गे बधिक बुद्धि हुई (एवं मिस्यियें गय हे बढ कर 51 मि गज हो
गई, भवक्ति भारतीय निमित मूवी वस्ठों का निर्यात निरस्तर कम होता गया
(सन 1814 ई० में डि मिं थान, सन् 1844 ई० में 63,000 थान तथा सन् 1850
ई० में सम्पूर्ण ब्रिटिश निर्यात का 1 दूं भागी ।
इस अवधि में सनू 1833 में एक चाटंर अधिनियम के द्वारा कम्पनी की
समर व्यापारिक क्रियायँ समाप्त कर दी गयो और इर्लैंड के पू जीपतियो को
भारत में अपनी पू जी विनिधोजित करने का अधिकार प्रदान क्या गया । इस
विशेषाधिगार के फतस्वरूप वहीं के प् जीपतियों ने यहा अपनी फैनटरियों रधापित
की तथा अन्य उपक्रमो में श्रवेठा करना प्रारम्भ कर दिया। विंदेशी पू'जी के प्रवेश
व... उॉष्ट धाइटार सिरीज हिवरदेड उ करनी दा दि धिसाणज पी ए०प्याप्य कह, पिन फर्श
कई फट काठ कच्डरहाउ उद धिटस्लेसफड्ट पड को आदड चेक,
User Reviews
No Reviews | Add Yours...