करकंड चारीउ | Karakand Chariu
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
374
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्ररतावना
निर्देश है---पाहिलवाटिका, चन्द्रवाटिका, लघुचन्द्रवाटिका, छंकरवाटिका, पंचाइतलवाँ वैककिकसाग्रवी टिका,
और धंगवाटिका । ( जै० शि० ले० संग्रह, भाग २, लेख नं० १४७, पृ० १९० ) । इन वाटिकाओमे
दाताने अपने नामके अतिरिक्त अपने घर्मरक्षक नरेश, उनके विशेष इष्टदेव शिव तथा उनके चन्द्राचेय बंध
एवं चन्द्रकराचार्याम्नायकी स्मृति चिरस्थायी बनानेका प्रयत्न किया प्रतीत होता है । आश्चर्य नहीं, जो
यह चन्दरकराचार्याम्नाय चन्देखवंशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित की हो चर्द्रकराचार्याम्नाय चन्देलवंशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन सूनिने स्थापित की हो । स्वयं कनकामर
भी इस राजवश्के रहे हो, तो आश्चर्य नहीं । चंदेलोके क्षत्रियमा ने जाने एव कनकामर-द्वारा भपनेकों
ब्राह्मण कहे जासेसे उवत बातमे कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । चन्देंल अपनेंको अत्रि व चन्द्राबेयकी
सन्तान तो मानते ही है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, चत्देलवशी नरेश जेज्जाकके _नामसे ही वुन्देख-
जूड जेजकभुक्ति कहलाया और यहाँके जुझौतिया ब्राह्मण आंज तक भी प्रसिद्ध जेजकभुक्ति कहलाया और यहाँके जुझौतिया ब्राह्मण आंज तक भी प्रसिद्ध है । केवछ राजवशी होनेसे
चन्देल राजपूत जातियोंमे गिने जाने लगे है ।
ग्रंथकारकी गुरु-परमस्परा
ग्रंथके प्रारम ( १, २, १ ) में कविने सरस्वतीके अतिरिवत पंडित मंगलदेवके चरणोका स्मरण
किया है । तथा अन्तिम प्रदास्ति ( १०, २८, ३ ) में अपनेको बुध मंगलदेवका शिष्य कहा हूँ । इससे उनके
गुरुका नाम मगलदेव स्पष्ट है। इन मंगलदेवका तथा उनके गण-गच्छ आदिका अन्य कोई परिचय ग्रंथमे
नही पाया जाता । कितु रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामका एक संस्कृत ग्रथ मिलता है. जिसमें उसके कर्ता-
का नाम पंडित मंगल दिया गया है । इस ग्रथकी एक प्रति बलात्कार जैन भणष्डार, कारजामे ( केटेलाग
आफ सस्कृत एण्ड प्राकृत मैनृस्क्रप्टस इन सी. पी. एण्ड बरार, क्रमाक ७८२९ ) तथा दूसरी प्रति शास्त्र
भण्डार दि० जैन मन्दिर पाटोदी, जयपुरमें है ( राजस्थानके जेन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रंथ सूची क्र० ७७८ ) ।
इस जयपुरकी प्रतिमे ग्रथका अतिम पुष्पिका-वाक्य है, “स० १६८० वष काष्ठासंघे नन्द्तटमामे मट्ारक
श्रीभूषणदिष्य पंडित मगलकृत शास्त्रस्नाकर नाम शास्त्र सम्पूण ।'” इसपर-से ऐसा प्रतीत होता है
जैसे सं० १६८० ग्रथकी रचनाका काल हो । कितु यथार्थत” यह कालनि्देश उक्त प्रतिके लेखनका ही हो
सकता है, क्योकि कारंजा शास्त्रमण्डारकी प्रतिमे उसका लेखनकाल १६६७ अकित है । काष्ठासघ और नात्दि-
तट ग्रामका प्राचीनतम उल्लेख देवसेनक्ृत दर्बनसार ( गा० ३८ ) मे प्राप्त होता है, जहाँ विक्रमराजकी
मृत्युसे अर्थात् विक्रम सबत्के ७५३ वर्षमे नत्दितट ग्राममें काष्ठासघकी उत्पत्ति कही गयी है । यदि कनकामरके
कालके समीप इस संघके श्रीभूषण और उनके शिष्य मगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो तो वें ही प्रस्तुत ग्रंथ-
कर्ताकि गुरु माने जा सकते है। किन्तु वर्तमानमे उक्त धर्मरत्नाकरकी पुष्पिकाके अतिरिक्त अन्य कोई
साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध नही है। हाँ, कुछ सदय उत्पन्न करनेवाली यह बात अवश्य है कि कविने
उक्त गण-गच्छका उल्लेख न करके अपनेको चर्द्द्ाषि गोत्रीय कहा है ।
अथका विषय
इस प्रंथमें करकड ( अपभ्रद्ब-करकड ) महाराजका चरित्र दश सधियोमे वर्णन किया गया है।
संक्षेपमे यह कथा इस प्रकार है
अंगदेशकी चम्पापुरीमे घाडीवाहन राजा राज्य करते थे । एकबार वे कुसुमपुरको गये और वहाँ
पद्मावती नामकी एक युवतीकों देखकर उसपर मोहित हो गये । युवतीका संरक्षक एक माली था जिससे
बातचीत करने आदिसे पत्ता लगा कि वहं युवती यथार्थमे कौशाम्बीके राजा वसुपाछकी पुत्री थी । जन्म-
समयके अपशकुनके कारण पित्ताने उसे जमना नदीमे वहा दिया था । राजपुत्री जानकर थाडीवाहनने उसका
पाणिग्रहण कर लिया और उसे चम्पापुरी ले आये । कुछ काल पश्चात् वह गर्भवती हुई और उसे यह दोहला
उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द वरसातमे, मैं नररूप धारण करके, अपने पतिके साथ, एक हाथीपर सवार होकर, नगर-
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