करकंड चारीउ | Karakand Chariu

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Karakand Chariu by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररतावना निर्देश है---पाहिलवाटिका, चन्द्रवाटिका, लघुचन्द्रवाटिका, छंकरवाटिका, पंचाइतलवाँ वैककिकसाग्रवी टिका, और धंगवाटिका । ( जै० शि० ले० संग्रह, भाग २, लेख नं० १४७, पृ० १९० ) । इन वाटिकाओमे दाताने अपने नामके अतिरिक्त अपने घर्मरक्षक नरेश, उनके विशेष इष्टदेव शिव तथा उनके चन्द्राचेय बंध एवं चन्द्रकराचार्याम्नायकी स्मृति चिरस्थायी बनानेका प्रयत्न किया प्रतीत होता है । आश्चर्य नहीं, जो यह चन्दरकराचार्याम्नाय चन्देखवंशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित की हो चर्द्रकराचार्याम्नाय चन्देलवंशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन सूनिने स्थापित की हो । स्वयं कनकामर भी इस राजवश्के रहे हो, तो आश्चर्य नहीं । चंदेलोके क्षत्रियमा ने जाने एव कनकामर-द्वारा भपनेकों ब्राह्मण कहे जासेसे उवत बातमे कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । चन्देंल अपनेंको अत्रि व चन्द्राबेयकी सन्तान तो मानते ही है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, चत्देलवशी नरेश जेज्जाकके _नामसे ही वुन्देख- जूड जेजकभुक्ति कहलाया और यहाँके जुझौतिया ब्राह्मण आंज तक भी प्रसिद्ध जेजकभुक्ति कहलाया और यहाँके जुझौतिया ब्राह्मण आंज तक भी प्रसिद्ध है । केवछ राजवशी होनेसे चन्देल राजपूत जातियोंमे गिने जाने लगे है । ग्रंथकारकी गुरु-परमस्परा ग्रंथके प्रारम ( १, २, १ ) में कविने सरस्वतीके अतिरिवत पंडित मंगलदेवके चरणोका स्मरण किया है । तथा अन्तिम प्रदास्ति ( १०, २८, ३ ) में अपनेको बुध मंगलदेवका शिष्य कहा हूँ । इससे उनके गुरुका नाम मगलदेव स्पष्ट है। इन मंगलदेवका तथा उनके गण-गच्छ आदिका अन्य कोई परिचय ग्रंथमे नही पाया जाता । कितु रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामका एक संस्कृत ग्रथ मिलता है. जिसमें उसके कर्ता- का नाम पंडित मंगल दिया गया है । इस ग्रथकी एक प्रति बलात्कार जैन भणष्डार, कारजामे ( केटेलाग आफ सस्कृत एण्ड प्राकृत मैनृस्क्रप्टस इन सी. पी. एण्ड बरार, क्रमाक ७८२९ ) तथा दूसरी प्रति शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर पाटोदी, जयपुरमें है ( राजस्थानके जेन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रंथ सूची क्र० ७७८ ) । इस जयपुरकी प्रतिमे ग्रथका अतिम पुष्पिका-वाक्य है, “स० १६८० वष काष्ठासंघे नन्द्तटमामे मट्ारक श्रीभूषणदिष्य पंडित मगलकृत शास्त्रस्नाकर नाम शास्त्र सम्पूण ।'” इसपर-से ऐसा प्रतीत होता है जैसे सं० १६८० ग्रथकी रचनाका काल हो । कितु यथार्थत” यह कालनि्देश उक्त प्रतिके लेखनका ही हो सकता है, क्योकि कारंजा शास्त्रमण्डारकी प्रतिमे उसका लेखनकाल १६६७ अकित है । काष्ठासघ और नात्दि- तट ग्रामका प्राचीनतम उल्लेख देवसेनक्ृत दर्बनसार ( गा० ३८ ) मे प्राप्त होता है, जहाँ विक्रमराजकी मृत्युसे अर्थात्‌ विक्रम सबत्‌के ७५३ वर्षमे नत्दितट ग्राममें काष्ठासघकी उत्पत्ति कही गयी है । यदि कनकामरके कालके समीप इस संघके श्रीभूषण और उनके शिष्य मगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो तो वें ही प्रस्तुत ग्रंथ- कर्ताकि गुरु माने जा सकते है। किन्तु वर्तमानमे उक्त धर्मरत्नाकरकी पुष्पिकाके अतिरिक्त अन्य कोई साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध नही है। हाँ, कुछ सदय उत्पन्न करनेवाली यह बात अवश्य है कि कविने उक्त गण-गच्छका उल्लेख न करके अपनेको चर्द्द्ाषि गोत्रीय कहा है । अथका विषय इस प्रंथमें करकड ( अपभ्रद्ब-करकड ) महाराजका चरित्र दश सधियोमे वर्णन किया गया है। संक्षेपमे यह कथा इस प्रकार है अंगदेशकी चम्पापुरीमे घाडीवाहन राजा राज्य करते थे । एकबार वे कुसुमपुरको गये और वहाँ पद्मावती नामकी एक युवतीकों देखकर उसपर मोहित हो गये । युवतीका संरक्षक एक माली था जिससे बातचीत करने आदिसे पत्ता लगा कि वहं युवती यथार्थमे कौशाम्बीके राजा वसुपाछकी पुत्री थी । जन्म- समयके अपशकुनके कारण पित्ताने उसे जमना नदीमे वहा दिया था । राजपुत्री जानकर थाडीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया और उसे चम्पापुरी ले आये । कुछ काल पश्चात्‌ वह गर्भवती हुई और उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द वरसातमे, मैं नररूप धारण करके, अपने पतिके साथ, एक हाथीपर सवार होकर, नगर-




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