पन्चाध्यायी प्रवचन भाग - 1,2 | Panchadhyayi Pravachan Bhag - 1,2

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Panchadhyayi Pravachan Bhag - 1,2  by मनोहर जी वर्णी - Manohar Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम भाग ११ चाहिए । जिसमे धर्म बताया जाना है उस पदार्थकी सिद्धि होनेपर ही धर्मीकी सिद्धि की जा सकती हैं । मूल प्रयोजन तो श्रात्माका यथाथं परिज्ञान करना है । श्रव श्रात्मा के परिज्ञानके लिये कुछ उस दृष्टिसि भी परखना होगा जिस दृष्टिमि सभी पदार्थोका चर्णन होता हो । प्रथम यह जाने कि श्रांत्मा है, पदार्थ हैं तो पदार्थेपना समकता समभनेके लिए ऐसे सामान्यरूपको निरणना होगा जिसमें कि पदाघपनेके नातेसे श्रात्मा का ज्ञान होनेपर ऐसा ज्ञान जो कि सभी पदार्थेमि वह स्वरूप पहुंचे । भ्रनेक धर्मकि समूहका नाम ही तो घर्मी है । धर्म कहो, गुण कहो, दोनोका श्रर्थ एक है । वैसे धर्म श्रीर गुणमें थोडा श्रन्तर है । गुगा तो होता है सद्धावरूप शरीर धर्म होता है सद्धाव रूप भर श्रभावरूप । जिस वस्तुमे मुर्तत्व, चेतन्पत्व भ्रादिक गुण है ये सब शरद्धावरूप॑ है। एक वस्तुमें श्रन्य समस्त वस्तुम्नोका श्रभाव है, ऐसा प्रभावरूप धर्म भी है लेकिन इस भ्रभावका विधि नही है । विधि चस्तुके सद्धाव रूप ही है जो कि स्वयं गुणात्मक है। तो श्रभावकी पहिचान जीवमुखेन होती है, फितु भेदकी पहिचान विधिमुखेव हो ही है। इस कारणने घर्म श्रौर गुणमे भ्रन्तर है लेकिन जहाँ धर्मीका परिचय किया जा रहा है वहाँ घर्म श्रौर गुणुका धर्थ एक है। पदार्थ श्रखण्ड श्रौर श्रवक्तव्य है । जब उस पदा्थेमे उसकी किसी शक्तिका निरूपण होता है तो उस विवेचनके समय जो विवेचनमे श्राया ऐसा गुण धर्म कहलाता है, बाकी श्रनन्त गुणोका समुदाय धर्मी दव्य फहलाता है । देखिये ! धघर्मी धव्दसे न कहकर पदार्थ सतु शब्दसे कहा जाय तो वह एक श्रसण्ड पदार्थ ज्ञानमे श्राता है, किंतु धर्मी शब्दसे कहनेपर कोई न कोई धर्म मुख्य होगा इस हृप्टिके आशयमे, तो वह धर्म तो धर्म हुमा श्रीर जिस पिंडमे हम धर्मको सिद्ध कर रहे हैं वह पिण्ड शेप श्रनन्त गुणोका समुदायरूप हुआ । यद्यपि समुदाय है वह सभीका जो दिवेचनीय गुण है श्रौर जो शेप गुण है, सभीका पिण्डघर्मी होता है लेकिन जब विवेघन किया जा रहा है किसी धर्मीका तो वह तो बनेगा झाघेय श्र घर्मी ' बनेगों , माषारे 1 तो जो झाधेय है वह झाधारमे इस समय रही निरखा ना रहा । श्रतएव शेप घर्मोका समुदाय धर्मी है श्ौर जाननेके लिए निरणुंयक्रे लिए समस्त गुणोका समु- दाय धर्मी है । तो जैसे एक विवेचनीय गुणा घर्म कहलाता है ऐसे ही शेष समस्त गुण भी पर्म हैं। जब जय भी जिस न्सी भी गुण का विवेचन किया जायगा वह दृष्टिमें + प्मे है सौर चाकी धर्मोंका पिण्ड पदार्थ धर्मी है । ढो धर्मकी मीमासा तभी सम्भव है जब कि धर्मीका वोध हो जाय । जैसे झद्धोगग परिज्ञान तव ही सम्भव है जब एक दारीरका घोध है । हाथका ज्ञान कया झलगते इतना ही मात कोई कर लेता है? धरीरका परिश्ञान है । उसमेसे हाथ एक भज्ध है । जब कि ज्ञान होता है। तो इसी प्रकार घर्मी है एक पिण्ड झवयवी श्ौर धर्म है भ्वयय झ् । तो घर्मीका शान होने पर धर्मफा ज्ञान होगा । दस स्पायमे सर्वप्रथम विदेचनीय धर्मी होता है । पाने पदार्थ पुर पीज, यरतु । उसका स्वरूप क्या है, यट सर्वप्रथम जान लेना चाहिए । वस्तुका स्परूप ही भव या रहे हैं ।




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