विवेकानंद साहित्य जन्मशती संस्करण खंड ७ | Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran Khand-vii
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
420
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)र्प् देववाणी
इस संसार में सभी युगों के, सभी देशों के ,सभी शास्त्र और सभी सत्य वेद हैं;
क्योंकि ये सभी सत्य अनुभवगम्य हैं और सभी लोग इन सब सत्यों की उपलब्धि
कर सकते हैं।
जव प्रेम का सूर्य क्षितिज पर उदित होने छगता है, तब हम सभी कर्मों
को ईइवरापंण कर देना चाहते हैं; और उसकी एक क्षण की भी विस्मृति से
हमें बड़े क्लेश का अनुभव होता है ।
ईदवर और उनके प्रति तुम्हारी भक्ति--दोनों के बीच कोई भी अन्य वस्तु
नहीं होनी चाहिए। उनकी भक्ति करो, उनकी भक्ति करो, उनसे प्रेम करो ।
लोग कुछ भी कहें, कहने दो, उसकी परवाह मत करो । प्रेम (भक्ति) तीन प्रकार
का होता हैं--पहुला वह जो माँगना ही जानता है, देना नहीं; दूसरा है विनिमय;
और तीसरा है प्रतिदान के विचार मात्र से भी रहित, प्रेम-दीपक के प्रति पतंग
के प्रेम के सदृद।'
'यह भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है।”*
कर्म के द्वारा केवछ कमें करनेवाले का ही प्रशिक्षण होता है, उससे दूसरों
का कुछ उपकार नहीं होता । हमें अपनी समस्या को स्वयं ही सुलझाना है, महा-
पुरुष तो हमारा केवल पथ-प्रदर्शन करते हैं। और “जो तुम विचार करते हो,
वह तुम वन भी जाते हो।' ईसा के श्री चरणों में यदि तुम अपने को समर्पित
कर दोगे तो तुम्हें सर्वदा उनका चिन्तन करना होगा और इस चिन्तन के फल-
स्वरूप तुम तढ़त् बन जाओगे, इस प्रकार तुम उनसे 'प्रेम' करते हो।
'पराभक्ति और पराविद्या दोनों एक ही हैं ।'
किन्तु ईदवर के सम्बन्ध में केवल नानाविष मत-मतान्तरों की आलोचना
करने से काम नहीं चलेगा। ईदवर से प्रेम करना होगा और साधना करनी
होगी । संसार और सांसारिक विषयों का त्याग विज्ेषतः तव करो जब 'पौघा'
सुकुमार रहता है। दिन-रात ईश्वर का चिन्तन करो; जहाँ तक हो सके दूसरे
विषयों का चिन्तन छोड़ दो। सभी आवश्यक दैनंदिन विचारों का चिन्तन
ईरवर के माध्यम से किया जा सकता है। ईरवर को अपित करके खाओ, उसको
अपित करके पिओ, उसको अर्पित करके सोओ, सबमें उसीको देखो। दूसरों से
उसकी चर्चा करो, यह सबसे अधिक उपयोगी है।
१. इन प्रेमा भक्ति के रूपों को क्रमशः साघारणी, समंजसा तथा समर्था
कहा गया है।
२. सा तु क्मंज्ञानंयोगेस्योधप्यघिकतरा ॥ नारदभवि्तिसुत्र ॥४1२५॥
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