उत्तराध्ययन -चयनिका | Uttradhyayan-chaynika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के फल. रस श्रौर वर्ण में तो मनोहर होते हैं, किन्तु वे खाने पर जीवन को समाप्त कर दत हूँ (92) । सर्दियों के मानव-अनुभव -ने हमें सिखाया है कि भोगमंय जीवन जीने से मनृप्य तनाद-मुन्त नही हो सकता है । भोगेच्छाध्रों से उत्पन्न मानसिक तनाव को मिटाने के लिए मनृष्य ,जितना-जितना भोगों.: का सहारा लेगा, उतना-उतना- मानसिक तनाव गहरी जड़े पकडता जायेगा । -मानसिक तनाव की उपस्थिति में मनुष्य जीवन की गहराईयों की भ्रोर नहीं मुड॒ सकेगा श्रोरं छिछला जीवन जीने को ही सब कुछ समभता रहेगा । उत्तराध्ययन का.कहना है कि जो _मुनुष्य शरीर में, कौति में तथा रूप में श्रासक्त होते है, वे दुःखों से घिर_ रहते हैं (31),। मनुष्यों का जो कुछ भी का यिक श्रौर मानसिक दुःख है; वह _वरिपयों में श्रत्यन्त झासक्ति से उत्पन्न होता है (91) । जो रूपों (भोगों) में तीव्र श्रासक्ति रखता है, वह विनाया को प्राप्त होता है (94) ! इस तरह इन्द्रियों के व्रिपय श्र मन के विपय श्रासवत मनुष्य के लिए दुःख का कारण होने हैं (96) । यह दुःख मान- सिक तनाव के कारण. उत्पन्न होता है । ः भोगच्छाओं से उत्पन्न मानसिक तनावात्मक दुःखों को नमिटाने के लिए भोगेच्छाश्ों को मिटाना जरूरी है। इसके लिए संयममय जीवन श्रावइ्यक है । उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि व्यक्ति चाहे ग्राम अथवा नगर में रहे, किन्तु वहाँ उसे सयत श्रवस्था में हो रहना चाहिए (44) । जैसे उज्जड बेल वाहन को तोड़ देते हैं, व से. ही संयम में दुबंढ व्यक्ति जीवन-यान को छिनन-भिनन कर देते है (74) । जो विषयों स्रे नहीं -चिपकते हैं, वे अविलासी व्यक्ति मानसिक तनावरूपी मलिनता से छुटकारा पा जाते है (73,719 । जसे सुखा गोला दिवार चयनिका ] [जो




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