योगदर्शन | Yogadarshan

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Yogadarshan by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट््द | है। ब्रह्मांड से तात्पर्य मस्तिष्क के ऊपरी भाग से है । यदि सुषुम्ना कोई ऐसी वस्तु. ''होती जो आंख से देखी न जा सकती तव तो यह सब बातें मान ली जातीं, परन्तु सुषुम्ना . तो आंख से प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। पीठ पर हाथ लगाने से रीढ़ की हट्टी अर्थात्‌. मेरुदंड का रूप भौर स्थान जाना जा सकता है। इसी हड्डी में वह लम्वी चली है जिसमें . सुपुम्ना नास की ठोस नाड़ी है। _उसंमें कोई छिद्र नहीं, इसलिए उसके भीतर वायु संचार का प्रश्न नहीं उठता । परन्तु पाठ्यालाओं में प्रत्यक्ष ज्ञातव्य बातों के लिए . कोई जगह नहीं । इसी प्रकार सूये में संयम करने से भूवन-ज्ञान की प्राप्ति बतलायी - गयी है और भवनों का स्वरूप भी वतलाया गया है। वह स्वरूप ज्योतिष के. सर्वेथा विरुद्ध है और यह स्मरण . रखना चाहिए कि ज्योतिष भी प्रत्यक्षमूलक है । इतना कहने से काम नहीं चल सकता कि प्राचीन काल में आज जैसे सुक्ष्म यंत्र नहीं होते थे। यहां तो योग के अभ्यास से उत्पन्न ज्ञान का चर्चा है जो भ्रान्त हो ही नहीं .*सकता। ऐसी और भी अनेक वातें इस ग्रन्थ में आ गयी हैं. जिनके सम्बन्ध में. बंका उठनी चाहिए, पर नहीं उठती । जो -अंसद्‌ ज्ञान शिष्य अपने .गुरु से पाता. है उसी को एक दिन अपने शिष्यों तक॑ पहुंचा देता है। इस प्रकार “अन्घे नेव लीयमाना यथान्वा: की. परम्परा चेली आ रही है। मेरी समझ में विद्यालयों में योगदशन का. पढ़ाना वच्द कर देना चाहिए। सांख्यदर्शन पर्याप्त है। . . अस्तु, मैंने आरम्भ में ही कहा है कि मैं “'योगसुत्रों' को बड़े आदर की दृष्टि से देखता रहा हूं। अब भी मेरे मन में उनके छिए आदर है। परन्तु कभी. कभी यह प्रदन हठातू उठता है कि इस ग्रन्थ का रवयिता स्वयं योगाभ्यासी थी था या केवल पंडित 1: अन्य दर्द ग्रन्थों में और योगदशंन में एक वड़ा अन्तर है। दूसरे दर्शन केवल तक के भरोसे चलते हैं। भले ही वेदान्तदर्दन 'तर्काप्रितिष्ठानात्‌” कह कर तरक॑ का खंडन करता देख पड़ता है, परन्तु चस्तुतः वह भी तकं का ही सहारा लेता है। उसका आधय इतना ही है कि जिस तकं से काम लिया जाय वह श्रुतिसम्मत होना चाहिए । परन्तु जंब वेद को प्रमाण च मानने वाले बौद्ध आदि से शास्त्रार्थ करना पड़ा तो वेदान्त को भी तर्क की ' दारण जाना पड़ा। इसके सिवाय कोई और गति नहीं है। परन्तु योगदर््न में शास्त्रार्थ का स्थान बहुत कम है। इसमें तक॑ के लिए बहुत कम जगह है। सिवाय उन स्थानों के जहां इसने. ईश्वर का चर्चा किया है, इसके आधारभूत दार्थनिक सिद्धान्त वही हैं -. जिनका प्ररतिपादन सांख्यद्शन के आचार्यों ने किया है । इसलिए शास्त्रार्थ करके विरोधी . को परास्त.करने का भार तो योगदर्शन प्रायः सारा का सारा सांख्य के कंघें पर डाल सकता था, उसको तो योग का व्यावहारिक उपदेश देना था । जो ग्रन्थ ज्योतिष या चिकित्सा या किसी भी दूसरी व्यावहारिक विद्या की दिक्षा देते हैं उनमें भी शिष्य को _ समझाने के छिए तथा पूर्वापर का सामंजस्य दिखलाने के लिए बीच. बीच में सिद्धान्त -




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