स्वाध्याय पद संग्रह | Svadhyay Pad Sangrah Ac 6924

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Svadhyay Pad Sangrah Ac 6924 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सजीव या निर्जीव, स्वत्प वस्तु का भी जो परिग्रह (आसक्ति) रखता है अथवा दूसरे को उसकी अनुज्ञा देता है, वह दु ख से मुक्त नहीं होता। मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है। मेरी आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। मेरी आत्मा ही कामदुहा धेनु है और मेरी आत्मा ही नन्दन वन है। काम भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दु ख देने वाले है। बहुत दु ख और थोडा सुख देने वाले है। ससार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान है। यत्ना (विवेक या उपयोग) पूर्वक चलने, यत्नाचार पूर्वक रहने, यत्नाचार पूर्वक सोने, यत्नाचार पूर्वक खाने और यत्नाचार पूर्वक बोलने से पाप कर्म का बध नहीं होता। जो जिनवचन मे अनुरक्‍्त है तथा जिनवचनों का भानपूर्वक आचरण करते है, वे निर्मन और असक्लिष्ट होकर परीत ससारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो जाते है। जो अर्हत के द्वारा अर्थरूप मे उपदिष्ट है तथा गणधरो के द्वारा सुत्ररूप मे सम्यक्‌गुफित है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासिन्धु को मै भक्तिपूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ। मै सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करे। मेरा दे प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और सयम मेरा शरण है तथा भगवान्‌ महावीर मेरे शरण है। 6 (7) (18) (19) (20) (21) (22) (3) (24)




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