अभिधावृत्तिमातृका तथा शब्दव्यापारविचार का तुलनात्मक अध्ययन | Abhidhavritimatrika Tatha Shabdavyapar Vichar Ka Tulanatmak Adhyayan

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Abhidhavritimatrika Tatha Shabdavyapar Vichar Ka Tulanatmak Adhyayan  by निरूपमा त्रिपाठी - Nirupama Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कल्हण की 'राजतरद्िणी' में कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के शासन-काल में (८५४ ई०-प५३ ई०) कल्लट नामक व्यक्ति के अवतीर्ण होने का उल्लेख है। इसमें कल्लट का अवतार सिद्ध पुरुष के रूप में माना गया है। प्रो० पी० वी० काणे ने कल्लट को शैव सम्प्रदाय की स्पन्दशाखा से सम्बन्धित माना है।' कश्मीर में शैव-दर्शन का अत्यन्त महत्त्व है। शिवसुत्र ही इस दर्शन का आधार हैं। इन सुत्रों की रचना साक्षात्‌ शिव द्वारा मानी जाती है। शैव-शास्त्र में भी “स्पन्दशाखा' को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कल्लट ने शिवसुत्र पर स्पन्द सुत्र लिखे थे। इसका प्रमाण है स्पन्द-कारिका के अन्त में इसके रचनाकार के रूप मे कल्लट का नाम उल्लिखित होना समाप्तं स्पन्दसर्वस्वं प्रवृत्तं भट्टकल्लटात रवप्रकाशैकचित्तस्वपरिरम्भरसोत्सुकात्‌। डॉ० के०सी० पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ 'अभिनवगुप्त' में भट्ट कल्लट की चार कृतियों का उल्लेख किया है - स्पन्दसर्वस्व, तत्त्वार्थचिन्तार्माण, स्पन्दसुत्र तथा मधुवाहिनी। कश्मीर के प्रसिद्ध यही भट्टकल्लट मुकुलभट्ट के पिता थे। इनके द्वारा अपने पित्ता का नामोल्लेख भी उनकी प्रसिश्धि का ही सुचक है। कश्मीर की परम्परा में इतने प्रसिद्ध व्यक्ति का पुत्र होना भी इनके लिए गौरव का ही विषय था। सम्भवत: यही कारण है कि इन्होंने अपने विषय में अधिक कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं समझी होगी। अपने परिचय हेतु अपने पिता का नामोल्लेख मात्र कर दिया है। मुकुलभट्ट के शिष्य थे प्रतीहारेन्दुराज। इन्होंने उद्धट के 'काव्यालज्ारसारसंग्रह' पर 'लघुवृत्ति' नामक टीका लिखी है। इस टीका के प्रारम्भ में ही प्रतीहारेन्दुराज ने स्वयं को मुकुलभट्ट का शिष्य बताया है तथा उसके अन्त में मुकुलभट्ट की अत्यधिक प्रशंसा की है। इससे ज्ञात होता है कि द्विजश्रेष्ठ मुकुलभट्ट मीमांसा, व्याकरण, तर्क तथा के. कक ही मैन पका सफर /सफफारकॉक्ए थे सकने किक्लसलतर्कर ते फैतएकेसिसिएश सकल भमवकाताए न शारदादेशमपास्य दुष्टतेषां यदन्यत्र मया प्ररोहः।। अनुग्रहाय लोकानां भट्टश्रीकल्लटादय: अवन्तिवर्मण: काले सिद्धा भुवमवातरन्‌॥ (रा० त०, ५/६६) | सं० का० इति०, काणे, पु० २७२ | 'अभिनवगुप्त', डॉ० के० सी० पाण्डेय, पृ० १४७ । विद्वदग्रूयान्मुकुलादधिगम्य विविद्यते। प्रतीहारेन्दुराजेन काव्यालज्ारसंग्रह:। (काव्या० ल० वु०, पृ० २४५८) । * मीमांसासारमेघातृपदजलघिविधोस्तर्कमाणिक्यकोशात्‌ साहित्यश्रीमुरारेबुंधकुसुममधोः शौरिपादाब्जभुड़त्‌। श्रुत्वा सौजन्यसिन्धोर्द्धिजवरमुकुलात्‌ कीर्त्तिवल्ल्यालवालातु काव्यालड्ारसारे लघुवृत्तिमधात्‌ कौड्जण: श्रीन्दुराज:॥ (काव्या० ल० चु०, पू० ४३२) । भ भे मे भर




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