गांधीजी के जीवन प्रसंग | Gandhiji Ke Jivan Prasang

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गांधीजी के, कुछ संस्मरण श्रीमन्नारायण अग्रवाल शु मेल १९३६ में पहली वार गांधीजी से मगनवाडी (वर्धा) मे मिलने पर तब मैने तीव्र भ्रम-निरसत अनुभव किया। अवश्य ही निराशा के वशीभूत होने के कारण नही, अपितु जो कल्पना गाधघीजी के बारे में मेने कर रक्‍्खी थी उससे वे ब्रित्कुल भिन्न नजर भाने से मुझे ऐसा लगा! दुसरे बहुत से लोगो की भाति मेरी भी यही धारणा बन गयी थी कि महात्मा तो पूर्णतया अतमुख और अचल गभीर मनोदृत्ति के व्यक्ति होगे । किन्तु कितने अचम्भे की वात हूँ कि उनके इस प्रथम परिचय के कुछ ही क्षणो में मुझे वे ऐसे विशुद्ध मानव दिखाई दिये कि जिसके भीतर से प्रेरक प्रतिभा और मन प्रसन्न करने- वाली बिनोदप्रियता की घारा अविरल रूप से बह रही थी । “मेरे लिए यहा वया काम करना तुम पसद करोगे ?” गाधीजी ने पूछा । “में तो आपकी सेवा में हाजिर हु, वापूजी । कुपया माप ही फरमाइये ।” यह तो में जानता हू कि तुम हाल ही मे विलायत से छोटे हो, और खासा साहित्यिक कार्य कर सकते हो 1 छेकिनि वह तो में तुम्हें सौपूगा नहीं । कया तुम चरखे का शास्त्र जानते हो ?:देखो, मेरा यह चरखा नादुरुस्त होकर पडा है । कया इसे तुम ठीक कर सकोगे ?” दर है श्७ गोजीप्र च््‌




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