मनोजमाजरो ृतिकालिका | Manojamajro Ritykalika(1889)

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Manojamajro Ritykalika(1889) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाल नेना निमिख रत हे । सुखी हो जू काल तुमे काचू की न चिन्ता वच देखेचू दुखित अन देखेचू दुखित कै 1२१॥ हज बहि जाय न कहूँ यों आय आंखिन लें उमड़ि अनोखी घटा बरसति मे की । कहे पदमाकर चलावे खान पान की को प्रानन परी है आानि दहसति देह की ॥ चाहिये न एसी ह्ृष्रभान की किसोरी तोह् आई दे दमा जो ठीक ठोकर सनेक् की । गोकुल की कुल की नगेल की गोपालें सुधि गोरस की रस की न गौवन की गे की ॥ २२ ॥ 'दाहहा । केसे आए छो निरखिं तुम तहूँ नंद किसोर । भरभरात भामिनि परी घरघरात घन घोर ॥२३॥ परिहास यधघा--कवित्त । वन्दाबन चंद अड्डों आनद के कंद तुम माघव सुकन्द को अनन्द छवि जोरी के । नंद जू के नंद बलदेव के सछोदर सखान में सराहे घन स्यथाम मति भोरी के ॥ फागुन के औमर फजीद्त बजाय ढोल कक्त कहाए हम- भान की किसोरी के । गायन के रह शुलाम हज गो- पिन के हो हो इरि भडुआ हजार दार छोरी के ॥ २४ ॥ सवेया । दी ललिता वह कौन सी पाइनि श्राइ तिश्ारडे




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