पांचो घी में | Pancho Ghee Men

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Pancho Ghee Men by विन्ध्याचल प्रसाद गुप्त - Vindhyachal Prasad Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दर पाँचों घी में “सूब याद है सरकार, मैंने हो तो उसके घर की जमीन पर श्यालू रोपा था ।”* “हारे, ठुके तो याद है।” सूरतसिंद उसकी स्मरण शक्ति पर सुग्ध हो उठे । “सरकार !” दुनदुनवा उमंगों से खेलने लगा । उत्साहपूबक बोला--“झपने दरबार के सिंपाद्दी लोटासिंद ने श्राकर कहा--सर- कार ] गरीब सहरा इल चलाने के लिए, तैयार ही नहीं दोता । कहता है, तीन दिन बेगार में बीत गये। तीन दिनों से दो-दो 'सुथनी' खाकर प्राण बचाये जा रहे हैं; श्र श्रब तो काबू नहीं जो हल नचलावें ।' यह सुनते ही गरीबपरवर की श्राँखों में खून उतर श्ञाया श्र झापने फौरन हुक्म दिया--'उसकी कफॉपड़ी उजड़बा कर फॉकवा दो श्र उस जमीन पर हल चलवा कर झ्ालू रोपवा दो” ।”” “सच है । वह कमीना बहाना कर रहा था ।”” “और सरकार” टुनइनवा से कहा--“किस प्रकार दौड़कर शौटासिंह श्ौर सात धाँगड़ों के साथ हमने श्रापके डुक्म का पालभ किया था |” “श्राखिर वू मेरा मुंदलगा सेवक है। तेरे शरीर में, मेरा नमक कितना भींगा है !” मूरतसिंद उसके सर झाइसान लाद बैठे । सरकार का गुलाम हूँ मैं ।” इनइनवा ने श्रावेश में झ्पने स्वामी के चरणों पर भाथा रख दिया । भरे गले से बोला--“सर- कार | मैं तो भगवान से यही विनय करता हूँ--जब-जब मैं धरती पर शवतार लूँ तब-तब श्रापकी खिंदमत में हो मेरा जीवन शुजरे श्रौर सरकार के पाँव दबाते-दबाते ही मेरा दम निकले ।”” बाबू मूरतसिंह ने उसकी बातों पर काल नहीं दिया । उनकी ध्यान किसी दूसरी झोर लगा था | /.. “दुनदुनवा !” मूरतरिंद, ने मीन लोढ़ा । शृ




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