सुमनान्जलि | Sumananjali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्दे होता वरन्‌ कविके प्रयत्नका शान पाठकँके विचार्ेकीं उसकी सफलतासे फेंक देता है । ऐसे स्थर्लोपर आन्तरिक अनुभूतिका अमाव स्पष्ट हो जाता दे के हम केवल कविके परिश्रमकी प्रशंसा करने लगते हैं । इस संग्रहमें ऐसे स्थल भी यत्र तत्र पाये जाते हैं जहाँ अलंकार-प्रधान काव्यके सभी दोष स्पष्ट देख पढ़ते हैं । वहाँ वह अलंकार-विधान अलकार न रहकर कोर चमत्कार स्वरूप दी हो जाता है । अलंकार-विधान कैसा दी उच्च क्यो न हो यदि वह अनुभूतिविद्दीन हो, साथ ही अत्यधिक मात्रामें हो तो वह सदददर्योको सुचाद प्रतीत नहीं होता और ऐसा काव्य द्वितीय श्रणीका हो जाता दे । इस बातपर कभी दो मत नहीं हो सकते कि कविने अपने काव्यमे सीधी साधी भाषाका छोड़कर आलंकारिक भाषाकों ही अपनाया है । इसके कई कारण हो सकते हैं । कविमें कत्पनाका प्राघान्य उसको आलंकारिक भाषाकी ओर बलात्‌ ले जाता है । कत्पनाकी उड़ान उसको अनेकानेक अनूठी उक्तियाँ और उपमाएँ सुझाती है । एसे समयमें कव्पनाके सहारे चुने हुए शब्दॉद्वार एक दाब्द-चित्र बनानेमें ही कवि एफकाग्रचित्त हो जाता है और इससे उसकी अनुझूति गौणता प्राप्त कर लेती है । किन्ठ॒ जहाँ कविकी कल्पना अनुभूतिसे प्राणित होकर चली दे वहाँ उसकी छाव देखते दी बन आती है, वहाँ अलकार काव्यकी सुन्दरता बढ़ा देते हैं और कवि उन अलंकारोंमें ही आवश्यक रंग-रूप प्राप्त करता है । (१ ) “” किन्तु काम-करि-केंसरीके यही कारु इन्हें काम-करि-केसरी महेश बयां न प्यारे हों 1१० हन्द और तत्पुरुष समास, अथवा यों कहें अनुप्रास और परम्परित रूपकके सयोगने भर्वृहरिके एक प्रसिद्ध नामको अधिक चमत्कृत कर दिया है | (२) “ मानों चारों ओर मन्त्र-रकुटी घुमाती हुई कोई आमिचारिणी घराको सु करती । *” उस्ेक्षा बिलकुल नई है । हिन्दी या सस्कृत कवियोंनि सन्ध्याका ऐसा चित्र अकित नद्दीं किया । (३ ) “ सार-मरी शोभा थी वहार-मरी चसुधामे भार-मरी बाग अन्घकार-मरी यामिनी । ” अनुप्रासकी सहदायतासे नैसांगिंक चित्र एक क्रमसे अकित किया गया है | '




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