पन्चाध्यायी प्रवचन भाग - 3 | Panchadhyayi Pravachan Bhag - 3
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
166
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तूतीव भाग [ है हे
उम्तु चार युगलोसे गुम्फित है । स्याद अस्ति स्याद नास्ति स्याद नित्य स्याद श्नित्य
स्प्र द एस स्पाद अनेक स्वाद ततु स्थाद ग्रततु श्रौर ये प्रत्येक युगल द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भावकी श्रपेक्षाये घटित होते हूँ, सो उप प्रमसगके अनुसार यहाँ तक द्रव्यकी अपेक्षासे
स्थाद श्रस्ति नास्ति, क्षेत्र झपेक्षासि स्पाद श्रप्ति नास्ति और कालकी श्रपेक्षासे स्पाद
श्रस्ति चास्विका वर्णन किया । शव भावकी अ्पेक्षास स्याद अस्त नास्तिका वन
प्रारम्भ करते हैं ।
भावः परिणाम: किस स चेथ तख्वश्वरूपनिष्पति: ।
अथवा शक्ति प्मूह्दो यदि था सबंस्वसार! स्पात् | २७४ 1
भावका स्वरूप -भगव कहते है परिगामकों श्रथवा कहो तत्त्वका जो स्व-
रूम है वह भाव है श्रधवा कहों घक्तियोका जो समुदाय है सो भाव है । श्रश्रवा भाव
घव्दसे पदार्थके सर्वस्व सारका ग्रहण करना चाहियि । इसमें भावकी व्याख्या च र
प्रकारसे कही गई है । पहिले बताया है कि भावका श्र परिणाम है। भाव दाब्द सु
घातुस बना है । जिमका म्रर्थ है होने रहना । तो होते रहने शी बान जब कही जाती है
तो उनमे परिणाम ही तो विदिन होता है । इस भाव दब्दसे परिणाम श्र्थ विदित
होता है । ब्पोकि होते रहनेकी बात परिणामते सम्बन्धित होती है । यहाँ भाउका
स्वरूप साधारण रूपसे कहा गया है केवल इतने ही स्वरूपको इन ही शब्दों बलाफर
कुछ सीमासे वाहरी वात भी कही जा सकती है । होते रहनेका परिणाम हू भाव ।
तो जो कुछ भी होता रहे विरुद्ध परिसामगन हो. विपरीत परिणमन हो तो वह भी
यहाँ आरा जायगा ऐसी वात न भरा सके इस कारण लक्षण कहा गया है कि जो तत्त्व
स्पस्पकी निप्पत्ति है तत्त्व्र स्वर्प है दही उन । भाव है । इन कथनमें यह बताया
गया है कि सयरूपकी निष्पत्ति भावमें श्रायगी न फि जो चाहे परिणमव हो वे सब
परिशमन भागपे आयेंगे । ध्तना पह देनेपर भी म्रव +ी यह संशय वना रह सकता
दे तो बय। ऐपा जो सवच्प निष्पत् होता है बढ़ तो क्षशिक ही होगा, तो उया भाव
नशिक हुम्रा करता है ? यो तो क्षशिकवादियोने ऐसे ही भावकी ब्याख्या की है ।
भाव, पदार्थ वस्तु पूणणं जो एक समयमे हो उपकी धारा ढौद्धोने भी स्वीकार किया
है। पूवं्षण उत्तर क्षणमें धपने भ्राघारका समपंण करके निदत्त हो जाने हैं, यह कहा
गया दै। तो यो भावका लक्षण रिया तो गया कि तत्त्व स्वखूपको न्ष्यत्तिकों भव
परते हैं पर इममें कषणिकतारी व ते श्रा जाती है । नव श्र विशेष स्पष्ट करनेके
लिए तीसरी बार बरा हैं कि शक्ति समुदायका नम भाव है। दिस वस्तुकी जितनी
दा क्तराँ है उनफा समुदाय ही भाव है । शक्तियां चस्वुके साथ ही साथ नित्य ट्श्रा
मरती हूं । जैसे परिणामनमे उत्पाद व्ययको नान भ्ानी है यो घक्तियोका उत्पादव्यय
नहीं होता डीने मूल सनूका उत्पादव्यय नहीं है इसी प्रकार शक्तिपोका भी उट्पादच्यय
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