भारतीय संस्कृति और अहिंसा | Bharatiy Sanskriti Aur Ahinsa

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Bharatiy Sanskriti Aur Ahinsa by वर्मानन्द कौसम्बी - Varmanand Kausambi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श् कि इन शमर्णोने यशीय दिंसाका तो विरोध किया, ऊपर-ऊपरसे देसनेपर उद्दोने अहिंसा धमका पालन करना भी जारी रया परत उ्ीं अहिंसक गिये जानेवाले श्रमर्णोके जीवनमें पिछली ओरसे सूदम हिंसा--परिग्रदद, आलस्य, परावलम्बन और खुशामदके रूपसे--प्रविष्ट हो गई | इसी हिंसासे श्रवण निर्वीय बने और अन्तमें उनको घम और राज्य दोनों सत्तांसि दाथ घोना पडा । धार्मिक हिंसा यद दोनेपर या कम दोनेपर मी ब्राह्मण चर्गमें श्रवर्णोके जितनी ही, और कदाचित्‌ उससे मी अधिक; पस्मिद, खुशामद, पराथय और पारस्परिक इप्यावी सूदम दिंठा थी । श्रमण भी इस बाबत में च्युत दो गये, इसलिए अहिंसाकै तत्व- को बराबर विचारकर उसके द्वारा राष्ट्र और जातिका उत्थान करे, ऐसा कोई मद्दापुषुप लम्ने समयतक इस देशमम पैदा नहीं हुआ । पश्चिमकी पहलेसे दी जडपूजक भर हिंसाप्रिय सम्कृतिमें तो अहिंसा तस्वको अपनाकर उसके द्वारा मनुष्य जातिका व्यापक उत्कप सिद्ध करनेके लिए. किसी समथतम पुरुपके होनेका बहुत दी कम सम्मव था । इतनेमें ही अन्तमें मद्दात्मा गाँधी दि दुस्तानकी, चस्तुत बिश्वकी, रगभूमिके ऊपर अदिसाका तत्व लेकर आये और उन्होंने इस तरवके सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों अर्थका व्यापक रूपसे उपयोग करके उसके द्वारा केवल दि दुस्तामकी ही नहीं परन्तु वस्तुत समग्र विश्वकी जटिल समस्या सुल्झानेके लिए तथा समग्र मानव नातिके पारस्परिक समय धोकों मधुर तथा सुसद बनानेके लिए. जगत्‌ने पहले कमी नहीं देखा, ऐसा प्रयोग प्रारम्म किया है । लेखकवी अद्दिंसा तत्त्वके प्रति पु भद्धा है, खहद गाँधीजीके अद्िसाप्रधान प्रयोगकी सुक्तकटसे प्रशसा भी करता है | परन्तु साय द्दी-साथ लेखक यदद भी मानता है कि इस अहिंसा तत््वरे साथ प्रश्ञाका तत्व मिलना चाहिए, जिस तरवकी ऊछ कमी चहद गाँघी जीमें देखता है और जिस तस्वका विशिष्ट अस्तित्व बदद साम्पवादके पुरस्कताभेमिं--खास करके काल माक्स जैसॉमि-देखता है। साम्य वादियोंकी प्रशा और गाँघीजीकी अहिंसा इन दोनोंके मिध्रणसे जगत्‌के उद्घारकी पूरी आशाके साथ लेखक पुस्तक समाप्त चरता है। मेरी




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