जैन धर्म की मौलिक उदभावनाएँ | Jain Dharm Ki Molik Udbhavanaen

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Jain Dharm Ki Molik Udbhavanaen by जीतमलजी महाराज - Jitamalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मौलिय उद्भावनाएं ७ ७ रन आकर निभा ध्र्यात्‌--जो प्रमादी था पागल श्रारमा दिसी दूसरे प्राणी का हनन करना है बह प्रपना हनन पहले ही कर डालता है । घातक वी आत्मा धान बरने से पूर्व हो पाप से लिप्त हो जाती है पधौर घोर कर्म बाघ सेनो है। भ्राचार्य भद्वाहु के दाब्दों में भी झपना भ्रात्मा ही वास्तव में भहियक है तथा श्रात्मा ही हिमव-- झाधा चंब धहिसा प्राय! हिसति निच्छमो एसो । जो होई भ्रप्पततो, भरहिसपो हिसमो इयरों ॥ ॥ ७५४1! मर भ्र्वात्‌--अद्धिसा शोर हिंसा की परिभाषा करते समय यह एक नदिचित सिद्धाना समभना साहिए कि श्रात्मा हो श्रहिसा से श्रौर ब्रात्मा हो हिंसा से युक्त है । जो श्रात्मा विवेकशील है, जागृत है, सावधान है श्रौर प्रमादहीन है--वह भ्रहिसक श्रात्मा है श्रोर जो इसके विपरीत विवेकहीन है, जागृत नहीं, सावधान नही है एवं प्रमादाच्छनन है वह हिसक भ्रात्मा है । कर उपयुंवन विवेचन से यह रपप्ट हो जाता है कि भ्रहिसा तत्व का जतना सूदम स्वरूप एवं विवेज्न जनागमोी में प्रस्तुत किया गया है उतना जैनेनर दर्गनो में दृष्टिगोचर नहीं होता । यही कारण है कि जन धर्म भ्रहिमा तत्व के वैदिप्ट्य के वारण भी जेनेतर घर्मों में अपना पृथक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । गुगपूजा : गुणा: पुजास्यान॑ शुणिपु, नचघच लिंग मे च वयः॥ भर्थातू--विसी भी व्यक्ति की पूजा उसके गुणों के कारण होनों चाहिए, आयु भौर वाह चिन्हों के कारण नहीं । जैन धर्म इस उविति मे भ्रसरण' विश्वास बरता है । वेदिक सस्कृति में मुस्य रूप रो व्यवित पूजा में ही विश्वास किया जाना हैं । व्यविन पूजा मे, जिसवी पूजा व जाती है उसे ही सर्वेगुण सम्पन्न मान लिया जाता है । उसवी स्तुति में उसके व्यक्तित्व की प्रधानता रहती है, गुणों थी नही 1 व्यक्ति झपने श्राप में पूउप माना जाता है, गुणों के कारण नहीं ।




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